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________________ सम्यक् आचार मान मानं अनृतं रागं, माया विनासी दिस्टने । असास्वतं भाव बृद्धन्ते, अधर्मं नरयं पतं ॥ २६ ॥ कैसा मान करे मन मूरख, किसका मान रहा है ? और सोच माया कर किसने, कितना दुःख सहा है ? मान और माया पर यदि तू, चढ़ता ही जायेगा | तो अधर्म - भाजन बनकर तू घोर नर्क पायेगा || • जब स्पष्ट दिखता है कि संसार की माया विनाश में लीन होने वाली है; स्वप्न समान है: धोखे की टट्टी है, तब यह मनुष्य इस झूठ राग में पड़कर मान करता है; मायाचारी करता है ! यह मान मिथ्याभावों को वृद्धिंगत करता है; यह अधर्म है और एक न एक दिन लोभी को यह निश्चत रूप से नर्क में पकने वाला है । माया जदि मिथ्या मायादि संपूर्न, लोकमृढ़ रतो मदा। लोकस्य जीवस्य मंमारे भ्रमनं सदा ||२७|| " [ १९ मिथ्या मायादिक में रहता, रत जो मिथ्याचारी । लोकमूढ़ता का बन जाता है वह परम पुजारी || जिसकी गर्दन में लग जाती, इस पापिन की फांसी । मुक्त नहीं वह नर हो पाता, बनता भव-भव वासी ॥ जो मनुष्य मिथ्यात्व के संसर्ग से क्रोध, मान, माया, लोभ इन चार कपायों में लीन रहता है. वह नियम से लोकमृढ़ता का दास बन जाता है और जो इस मूढ़ता का शिकार हो गया. वह फिर नियम से संसार-सागर में गोते खाया ही करता है।
SR No.010538
Book TitleSamyak Achar Samyak Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Maharaj, Amrutlal
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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