SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 56
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८ ] सम्यक् आचार लोभ लाभकत असत्यस्या, असास्वतं दिस्टत सदा। अनृतं कृतं आनंद, अधर्म संसार भाजनं ॥२४॥ लोभी को दिखता है शाश्वत, मेरी है यह काया । शाश्वत कंचन, शाश्वत कामिनि, शाश्वत मेरी माया ॥ वह इस ही मिथ्या प्रवृत्ति में, नित आनन्द मनाता । किन्तु लोभ है मूल पाप का, पाप न इससा भ्राता ! जो लोभी जीव होता है, उसे संसार की प्रत्येक वस्तुओं में नित्यता के दर्शन होते हैं। जो कार्य मिथ्यात्व से पूर्ण होते हैं, उनके करने में ही वह आनंद मानता रहता है, किन्तु हे भाई ! लोभ अधर्म है: निम्मार है और उसके समान कोई दूसरा पाप नहीं है ! कोहाग्निप्रजुलते जीवा, मिथ्यातं घत तेलयं। कोहाग्नि प्रकोपनं कृत्वा, धर्मरत्नं च दग्धये ॥२५॥ मानव के उर में जलती जब, दुष्ट क्रोध की होली । तेल और घृत बनती उसमें, कुज्ञानों की टोली ॥ होता है क्या ? जन्म जन्म से संचित प्राणों प्यारा । धर्मरत्न उस पावक में जल, हो जाता चिर न्यारा ॥ जिस समय मनुष्य के हृदय में क्रोध रूपी अग्नि जलती है, उस समय यह मिथ्याज्ञान या मिथ्यात्व उसमें तल और घी का काम करता है। होता यह है कि मनुष्य का संचित किया हुआ धर्म म्पी रत्न इम क्रोध रूपी अग्नि में गिर पड़ता है और जलकर स्वाहा हो जाता है।
SR No.010538
Book TitleSamyak Achar Samyak Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Maharaj, Amrutlal
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy