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________________ १४ ] सम्यक् आचार शरीर असत्यं असास्वतं दिस्टा, संसारे दुष भीरुहं । मेरीरं अनित्यं दिस्टा, असुच अमेवे रितं ॥१६॥ यह संसार अनित्य, नित्य की इसमें रेख नहीं है । दुख ही दुख, सुख इसमें मिलता ढूँढ़े से न कहीं है । तन भी क्या है ? रे, क्षणभंगुर, पल भर में मिट जाये । उन मल मूत्रों का घर, जिनका नाम लिये घिन आये ॥ यह संसार असत्य है; अनित्य है और अगणित दुःखों से भरा हुआ है; सुख का तो इसमें चिह्न भी दृष्टिगोचर नहीं होता । यह शरीर भी, जिस पर हम सबको इतना गौरव है, क्या है ? एक क्षणभंगुर, धूल का पुतला और ऐसी ऐसी मलिन वस्तुओं का भंडार, कि जिनका नाम लेने मात्र से घृणा आती है। भोग भोगं दुषं अती दुस्टं, अनर्थं अर्थ लोपितं । संसारे स्रवते जीवा, दारुनं दुष भाजनं ||१७|| 9 पंचेद्रिय के भोग न सुखकर, वे अति दुखकर भाई । अनहित कर हरते जीवों की वे सब धर्म - कमाई ॥ भव-जल में बहने वाले जो, शरण यहां लेते हैं । वे मानों जलती होली में, बलि अपना देते हैं ॥ पंचेन्द्रियों के भोग दुःखों के मूल कारण हैं । ये स्वभाव से ही दुष्ट हैं। ये खल आत्मा को अपने स्वभाव से विस्मृत कर, अपने पथ पर ले जाते हैं और इस तरह आत्मा का भारी अहित करते हैं। इन भोगों में फँसकर, प्राणी भयंकर से भयंकर दुःख उठाता और चारों गतियों में ठोकरें खाता फिरता है। 1 1
SR No.010538
Book TitleSamyak Achar Samyak Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Maharaj, Amrutlal
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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