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________________ सम्यक विचार शुद्धतत्वं च वेदंते, त्रिभुवनम् ज्ञानेश्वरं । ज्ञानं मयं जलं शुद्ध, स्नानं ज्ञानं पंडितः ॥१०॥ हस्तमलकवत जिमको तीनों भुवन चराचर प्राणी हैं । उसी ब्रह्म को ध्याते हैं बम, जो बुधजन विज्ञानी हैं । शुद्ध आन्म है स्वच्छ सरोवर, कल कल करता जिसमें ज्ञान । इसी ज्ञानरूपी जल में नित, पंडित जन करते (हैं) स्नान ।। जो अपने अमीम ज्ञान से ममम्त चराचर प्राणियों के घट घट की और तीनों लोक की ममस्त बानों को हाथ में रख हय आंवले के समान देखना और जानता है, वही ज्ञान का ईश्वर ओम् या शुद्धान्मा विद्वानों के पृजन का एक मात्र आधार होना है। विद्वज्जन लोक की देग्वादेवी नदी, नालाबों में स्नान करके अपने को धार्मिक या पवित्र नहीं मानते, किन्तु ज्ञानपृगा जलाशय एक मात्र शुद्धात्मा में ही स्नान कर उनकी अपनी आत्मा विशुद्धता को प्राप्त होती है, एमा उनका अपना विश्वास रहता है। मम्यक्तस्य जलं शुद्ध, संपूर्ण सर पूरितं । म्नानं पिवत गणधरनं, ज्ञानं मरनंतं ध्रुवं ॥११॥ सम्यग्दर्शन रूपी जिसमें, भरा हुआ है नोर अगम्य । ऐमा है वह परम ब्रह्म का, भव्यो ! सरवर अविचल रम्य ।। महा मुनीश्वर श्री गणधर जी, जिनकी शरण अनेको ज्ञान । इस सर में ही अवगाहन कर, करते इसका ही जलपान ।। जिनकी शरण में अनेकों ज्ञान ठोर पा रहे थे, व गणधर प्रशु भी नदी सरोवर के जल से ही अपने को पवित्र हुआ नहीं मानते थे, किन्तु वे भी उसी जलाशय का उपभोग करते थे, जिसमें रत्नत्रय रूपी अगम्य नीर भरा हुआ है और जो मुमुक्षुओं के संसार में 'शुद्धात्मा' के नाम से प्रसिद्ध है तथा जो अपने ही पास है।
SR No.010538
Book TitleSamyak Achar Samyak Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Maharaj, Amrutlal
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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