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________________ सम्यक आचार [૨૨૬ आरंभ मुद्ध दिलं च. मंमिक्तं सुद्धं धुवं । दर्मनं ज्ञान चारित्रं, आरंभ सुद्ध मास्वतं ॥४३०॥ ज्ञानी का आरंभ यही. में शुद्ध भाव कब पाऊँ ? दर्शन का भाजन बन. का मैं सम्यग्दृष्टि कहाऊँ ? दर्शन पाकर कौन करूँ मैं. ऐसा उद्यम भारी । हो जाऊँ जिससे बड़भागी, ज्ञान-आचरण धारी ? ज्ञानीजनों का एक ही प्रारंभ होता है. और वह है अपने अमृन्य शुद्धामिक भावों को पाने की उत्तरोत्तर उत्कट अभिन्नापा। वह प्रनिनिमिप यही चिन्नवन करना रहनामा कौनमा दिन आय कि मैं शुद्ध मम्यग्दर्शन पा जाऊँ किदिन मेरा हृदय शन से पूरित हो दिवाली मा जगमगा उट और दर्शन से पूर्ण होकर मैं कौन मा एमा उद्यम करूं कि ज्ञान और चारित्र में प्रगण होकर मैं सम्यक प्रकार पूर्ण बन जाऊँ मुझे फिर कुछ भी करने को शेप न रहे ! नानी का एमा प्रारंभ ही शुद्ध प्रारंभ कहलाता है, और यही आरंभ मोक्षलक्ष्मी को प्रदान करने वाला हुआ करता है। आरंभं सुद्ध नत्वं च, मंमार दुप तिक्तयं । मोष्यमागं च दिम्टंते, प्राप्तं मास्वतं पदं ॥४३१॥ आत्मतत्व का ही विज्ञो ! आरंभ सदा सुखकर है । यह दिखलाता, अविनाशी, शिव सुन्दर मोक्ष-नगर है । सांसारिक दुख इससे सारे, नष्ट-भ्रष्ट हो जाते । शुद्ध तत्व-आरभी निश्चय, मुक्ति-महा-पथ पाते । शुद्ध तत्व से सम्बन्ध रखनेवाले आरंभ ही संसार में वास्तविक सुख प्रदान करने वाले हुआ करते हैं । ये प्रारंभ संसार को सुष्क बना देते हैं, मनुष्य को उस लोक का वासी बना देन है, जहाँ से वह फिर कभी लौटकर नहीं आता।
SR No.010538
Book TitleSamyak Achar Samyak Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Maharaj, Amrutlal
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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