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________________ २२८] सम्यक आचार अदेवं अगुरं जेन अधर्म क्रियते मदा। विम्वामं जैन जीवम्य. दुग्गति दुप भाजनं ॥४२८॥ जो आरंभ परिग्रह के, जालों में फँस जाता है । वह अदेव, अगुरों की सेवा में, निज को पाता है । करता है वह नर अधर्म की, सेवाएं दुग्वकारी । और इस तरह बनता है यह, दृतियों का धारी ॥ जो अविवेकी पापों से मन हा आरंभ परिग्रहों में ग्रासक्त हो जाना है, वह अदवों की और अगुगं की उपासना करने में व अधम में प्ररित क्रियाओं के कग्न में पूरी नौर में फंस जाना है और इन अपृज्य नत्वों की पूजा करकं अंतकाल नक दुगनियों का पात्र बनना है। आरंभं परिग्रहं दिन्ट, अनंतानंत च तुम्टये । ते नरा न्यानहीनम्य, दुग्गनि गमनं न मयः ॥४२९॥ अज्ञानी जगती के वैभव, देख देख ललचाता । वह भी उनही से आरंभों में, निज पर बढ़ाता ॥ पर आरंभ महा दुखदाई, आरंभी अज्ञानी । आरंभी दुर्गति का बनता, पात्र निसंशय ज्ञानी ।। अज्ञानी पुरुष दूसरों के प्रारंभों को देखकर मन ही मन ललचाया करना है और स्वयं भी उनहीं जैसे प्रारंभों को करने की बातें मन में सोचा करता है परन्तु ऐसा पुरुप विवेक से बिलकुल रहित होता है। क्या उसके भी अज्ञान की कोई सीमा होती है ? हिंसा से हुए आरंभ, अनन्तानंत प्राणियों के प्राण लेने के कारण और अशुभ ध्यान के प्रमुख द्वार हुआ करते हैं । अतः प्राणियों को वे दुर्गति प्रदान करते ही है, इसमें कोई भी संशय नहीं है।
SR No.010538
Book TitleSamyak Achar Samyak Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Maharaj, Amrutlal
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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