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________________ २०६] सम्यक आचार लोक मूढं देव मूढं च, अनृतं अचेत दिस्टते । तिक्तते सुद्ध दिस्टी च, सुद्ध मंमिक्त रतो सदा ॥३८४॥ लोकमूढता के समान ही, मिथ्या मति की प्याली । दर्शन धारी को दिखती है. देवमूढता काली ॥ वह इनको अपने पैरों से, नितप्रति ठुकराता है। समकित सागर आतम को ही, वह नितप्रति ध्याता है । दर्शन प्रतिमा धारी को लोकमूढ़ता के समान देवमूढ़ता भी बिलकुल अनिष्टकारी प्रतीत होती है। अनृत और अचेत वस्तु सम्बन्धी जितने भी राग होते हैं, उन सबको वह तृण के समान पैरों से ठुकरा दता है। उसका एकमात्र आराध्य होता है, उसका निर्मल सम्यग्दर्शन ! जिसकी आराधना व साधना में वह हमेशा ही तल्लीन रहा करता है। पाखंडी मूढ दिस्टी च, असास्वतं असत्य उच्यते । अधर्म च प्रोक्तं येन, कुलिंगी पाखंड तिक्तयं ॥३८५॥ असत्, अध्रुव द्रव्यों को रे जो. ध्रुव, नित, मत् कह गाते । जो अधर्म-प्रवचन कर जग को, झूठा मार्ग बताते ॥ ऐसे गुरुओं का पूजन ही, गुरुमूढत्व दुखारी । करते इनका भूल न चन्दन, दर्शन प्रतिमा धारी ।। जो पारखण्डी, अशाश्वत वस्तुओं को शाश्वत, और अचेतन वस्तुओं को चेतन बताते हैं; जनता को झूठे धर्म का उपदेश दत है, ऐसे गुरुओं के फंदे में पड़कर दर्शन प्रतिमाधारी गुरुमूढ़ता का पातक अपने शीश पर नहीं लेते । ऐसे कुवेषधारी और पाखंडी साधुओं से वे बिलकुल ममत्व तोड़ देते हैं।
SR No.010538
Book TitleSamyak Achar Samyak Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Maharaj, Amrutlal
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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