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________________ सम्यक् आचार [२०५ दर्शन प्रतिमा प्रतिमा उत्पादंते जेन, दर्सनं सुद्ध दर्सनं । उर्वकारं च विदंते, मल पच्चीस विमुक्तयं ॥३८२॥ विज्ञो ! जो मानव बनता है, दर्शन प्रतिमा धारी । वह नितप्रति धारण करता है, प्रिय दर्शन सुखकारी ॥ पंचविंश मल का दल, उसके पास नहीं आता है । वह नितप्रति शुचि ओम् मंत्र ही, अनुभव में लाता है । जो मनुष्य दर्शनप्रतिमा को धारण करता है, वह अपने हृदय में दर्शन ( मम्यक्त्व ) को सबसे पहले स्थान देता है। सम्यग्दर्शन को दूषित करनेवाले जो पच्चीस दोष होते हैं, उनको वह पूर्ण रीति से विलग कर देता है। महामंत्र ओम् का चितवन करना इस प्रतिमाधारी के कर्तव्य का एक प्रमुख अंग होता है। मूढत्रयं उत्पादंते लोक मूढं न दिस्टते । जेतानि मूढ दिस्टी च, तेतानि दिस्टि न दीयते ॥३८३॥ सम्पीड़ित होता न मृढताओं से, दर्शन धारी । लोकमूढता देती उसको, भूल न दुःख दुखारी । तीनों ही मूढत्व जहाँ पर, विकृति फैलाते हैं । दर्शन प्रतिमाधारी के, उस ओर न दृग जाते हैं। दर्शन प्रतिमाधारी के सन्निकट तीन मूढ़तायें कभी भी नहीं दिखाई देती हैं, न उसके पास लोकमूढ़ता रहने पाती है न अन्य कोई भी। ये मूढ़तायें जहाँ कहीं भी विकृतियों का सृजन करती हैं, वहां इन दर्शन प्रतिमाधारियों की दृष्टि भी नहीं जाती है। अर्थात् ये पुरुष मूढ़ता से सनी हुई वातों को देखना तक पसन्द नहीं करते।
SR No.010538
Book TitleSamyak Achar Samyak Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Maharaj, Amrutlal
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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