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________________ १०४] सम्यक् आचार देव, गुरु और शास्त्र या मम्यग्दर्शन में अटूट श्रद्धा प्रति पूर्न मुद्ध धर्मस्य, असुद्धं मिथ्या तिक्तयं । सुद्ध संमिक मं सुद्धं, सार्द्ध ममिक दिस्टितं ॥१९०॥ जो शुद्ध निर्मल धर्म को, करता सदा प्रतिपूर्ण है । मिथ्यात्व का गढ़ तोड़, जो उसको बनाता चूर्ण है ॥ शुद्धात्मा की जिसे सम्यक, भली विधि पहिचान है । संसार में 'दर्शन' उसी का, नोम प्रज्ञावान है। जो धर्म को अपने समीचीन भाव से सदा पूर्ण बनाता हो, मिथ्या और अशुद्ध भावों को अपनी छाया से विलग करता हो, शुद्धात्मा की जिसे भली प्रकार पहिचान हो या जो वस्तु के यथार्थ स्वरूपों को भली प्रकार जानता हो, संसार में उसी को विद्वान लोग 'सम्यग्दर्शन' कहते हैं। देव गुरु धर्म सुद्धस्य, सार्धं न्यान मयं धुवं । मिथ्या त्रिविध मुक्तं च, मंमिक्तं सुद्धं धुवं ॥१९१॥ जो आप्त, गुरु और धर्म में, रखता अटल श्रद्धान है । इन तीन जगमग ज्योतियों का, जिसे सम्यग्ज्ञान है ।। जिससे विलग मिथ्यात्व की. दुखदायिनी कटु सृष्टि है । भव्यो ! वही ध्रुव अचल, ज्ञानी शुद्ध सम्यग्दष्टि है । जिमको ज्ञानमय देव, गुरु और धर्म में अचल श्रद्धान है तथा जो तीनों मिथ्याज्ञान से सर्वथा रहिन है, वही पुरुप शुद्ध सम्यग्दृष्टि कहलाता है।
SR No.010538
Book TitleSamyak Achar Samyak Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Maharaj, Amrutlal
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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