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________________ सम्यक् आचार रूपातीत ध्यान रूपातीत विक्त रूपेन, निरंजनं न्यान मयं धुवं । मति श्रुत अवधि दिस्टं, मनपर्यय केवलं धुर्व ॥१८८॥ हे भव्य ! रूपातीत, उस शुचि आत्मा का ध्यान है । किल्लोल करता सिद्ध का, जिसमें स्वरूप महान है। मति, श्रुत, अवधि से पांच होते जो अरे ! विज्ञान हैं । इस ध्यान में देते कि वे पांचों, झलक असमान हैं । रूपातीत ध्यान प्रकट रूप से उस आत्मा का साक्षात्कार है, जो निरंजन, ज्ञानमय और ध्रुव है। इस ध्यान में मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञान ये पांचों ही एक रूप नित्य दिखलाई पड़ते हैं। अनंत दर्सनं न्यानं, वीज नंत सौख्ययं । सर्वन्यं सुद्ध द्रव्याथ, सुद्ध समिक दर्सनं ॥१८९॥ वसुधातली में चार जो भी, चतुष्टय विख्यात हैं । होते हैं रूपातीत में, सब आत्म में वे ज्ञात हैं। ध्यानी को होता भान, वह सर्वज्ञ है, गुणगेह है । शुचि शुद्ध दर्शन-ज्ञान से, परिपूर्ण उसकी देह है ॥ क्रांत दर्शन, अनतज्ञान, अनन्तवीर्य, अनंत सौख्य, जो ये चार चतुष्टय होते हैं, वे रूपस्थ ध्यानी को ध्यान करते समय अपनी आत्मा में प्रकट दिखलाई पड़ते हैं। उसे उस अवस्था में अनुभव होता है कि वह एक साधारण श्रात्मा नहीं, किन्तु सर्वज्ञ है; शुद्धात्मा परम पुरुष है और शुद्ध सम्यग्दर्शन से उसका आत्म-सरोबर सतह तक भरा हुआ है।
SR No.010538
Book TitleSamyak Achar Samyak Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Maharaj, Amrutlal
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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