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________________ सम्यक आचार...... ....... ९९ पदस्तं सुद्ध पदं मार्द्ध, सुद्ध तत्व प्रकामकं । मल्यं त्रय निरोधं च, माया मिथ्या न दिस्टते ॥१८०॥ जो शुद्ध आत्मिक भाव मय, होता पदस्थ-ध्यान है । करता है वह शचि शुद्धतम, तत्वार्थ का ही गान है ।। दिखते न तीनों शल्य के, उसमें कहीं भी शूल हैं । मिथ्यात्व मायाचार की, दिखतीं वहाँ बस धूल हैं । पदम्य ध्यान में शुद्ध पदों का ही निवास रहता है। इसके सारे पद व व्यंजन शुद्ध तत्व का है: प्रकाश करने वाले होते हैं। मिथ्या, माया व निदान इन शल्यों से सम्बन्धित विचारों को इस ध्यान में कोई भी स्थान नहीं रहता है, न मायात्व या मिथ्याचार ही इस ध्यान में कहीं दृष्टिगोचर होने पाता है। पदस्त लोक लोकांतं, लोकालोक प्रकासकं । विजन सास्वतं सार्द्ध, उर्वकारं च विंदते ॥१८१॥ जितना भी लोकालोक का, भव्यो ! सविस्तृत ज्ञान है । सांग उसका चितवन, करता पदस्थ ध्यान है । यह शुभ पदस्थ--ध्यान, शाश्वत व्यंजनों का यास है। यह ध्यान वह, करता जहाँ पर, 'ओम्' दिव्य प्रकाश है। पदस्थ ध्यान लोकालोक के प्रकाशक, समस्त तत्वों का एक साथ चिन्तवन करता है। इस ध्यान में ओम् पद का शाश्वत वास रहता है और इसके सारे व्यंजन व पद शाश्वत आत्म पदार्थ के ही द्योतक होते हैं।
SR No.010538
Book TitleSamyak Achar Samyak Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Maharaj, Amrutlal
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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