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________________ ९८ ] सम्यक् आधार पदस्थ-ध्यान पदस्तं पद विंदते, अर्थ सर्वार्थ सास्वतं । व्यंजनं तत्व सार्द्ध च, पदस्तं तत्र संजुतं ॥१७८॥ होता पदस्थ-ध्यान में है, उन पदों का चिन्तवन । शुद्धात्मिक-सद्भाव ही, करते जहां पर हैं रमण ॥ इन पदावलियों में जो करते, वर्ण-गुच्छ निवास हैं । तत्वार्थ देने का ही वे, करते अनन्त प्रयास हैं । पदस्थ ध्यान में उन पदों का चितवन किया जाता है, जो शुद्धात्मिक सद्भावों से परिपूर्ण रहते हैं। इस पदावली में जितने भी व्यंजन या वर्णगुच्छ रहते हैं, वे शुद्धात्म पदार्थ की ओर ही मन को आकृष्ट करने का प्रयत्न करते हैं। कुन्यानं त्रि न पस्यंते, माया मिथ्या विखंडितं । विजनं च पदार्थ च, सार्द्ध न्यान मयं धुर्व ॥१७९॥ सद्भाव सत्तापूर्ण जो, होता पदस्थ-ध्यान है । उसमें नहीं कुझान का, दिखता कहीं मुख म्लान है ॥ मिथ्यात्व-मायाचार करता, उस जगह न किलोल है । कण कण में उसके व्याप्त रहता, तत्व-- ज्ञान अमोल है ॥ पदस्थ ध्यान में, जो तीन मिथ्याज्ञान होते हैं, उनका दर्शन नहीं होता है। मिथ्यात्व मायाचार से वह शून्य होता है तथा उसके एक एक व्यंजन व पद में अमोल तत्वज्ञान भरा रहता है।
SR No.010538
Book TitleSamyak Achar Samyak Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Maharaj, Amrutlal
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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