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________________ - सम्यक् आचार मानं असास्वतं कृत्वा, अनृतं राग नंदितं । असत्यं आनंद मूढस्य, रौद्र ध्यानं च संजुतं ॥ १५६॥ यह मान का जो कूट है, वह क्या ? नितांत असत्य है । वह एक झूठा राग है, उसमें न कुछ भी तथ्य है ॥ अविवेकियों के हृदय का, वह एक मिथ्यानन्द है । जो रौद्र - वर्णों से गठित है, एक यह वह छन्द है । [ ८७ मान क्या है ? अशाश्वत, अकिंचन और झूठे रागों से बना हुआ, एक वह असत्य पदार्थ. जिस पर सवार होने में सिर्फ मूर्खो को ही आनन्द आता है; रौद्र ध्यान जिसमें निश्चयात्मक रूप से निवास करता है अर्थान जिसके हृदय में प्रवेश करते ही मनुष्य के रौद्र परिणाम हो जाते हैं । मानं पुन्य उत्पाद्यंते, दुर्बुद्धि अन्यानं श्रुतं । मिथ्या माया मूढ दिस्टी च, अन्यान रूपी न समयः ॥ १५७॥ जो मूढ़ होते मानके, मद के घिनौने पात्र हैं । वे ज्ञान -- मद में चूर हो, रचते अनोखे शास्त्र हैं | ये शास्त्र क्या ? मिथ्यात्व के होते निरे आगार हैं । अज्ञान की जिनमें बहा करतीं, अशुचितम धार हैं । जो मानी पुरुष होता है, वह अपने को एक प्रकाण्ड विद्वान और शास्त्रीय विषयों का ज्ञाता समझा करता है और उस नशे में वह अनेकों शास्त्रों की रचना कर डालता है। ये शास्त्र, जिन्हें कि मानी जीव अपनी लेखनी से लिखता है, निरी कुमति से भरे हुए, मिथ्या मायाचार से पूर्ण और अज्ञान के साक्षात स्वरूप होते हैं ।
SR No.010538
Book TitleSamyak Achar Samyak Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Maharaj, Amrutlal
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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