SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 126
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८६] .. सभ्यक आचार असास्वतं लोभ कृत्वं च, अनेक कष्ट कृतं सदा । चेतना लष्यनो हीना, लोभ दुर्गति बंधनं ॥१५४॥ जग की अशाश्वत वस्तुओं की नित्य करते भावना । इस जीव ने संसार--वन में, दःख पाया है घना ।। यह खेद है. चैतन्य से जो पूर्ण पुरुष प्रवीण है । वह दुष्ट दुर्गति--हेतु इक जड़, लोभ के आधीन है ॥ अनित्य और अशाश्वत पदार्थों का चिंतवन करते करत ही, इस मनुष्य ने अगणित समय तक इस संसार वन में दुःख उठाया है। बड़े ही आश्चर्य की बात है कि एक चेतन सी अनंत शक्ति का धारी पुरुप, एक तुच्छ लोभ से अचेतन पदार्थ के वश में होकर,विविध दुर्गतियों में मर्कट के समान नाच रहा है। मान मानं अमत्य रागं च, हिंसानंदी च दारुनं । परपंचं चिंतते येन, सुद्ध तत्वं न पस्यते ॥१५५।। मिथ्यात्व में कटु राग से, होता सृजन जो मान है । उसमें बना रहता सदा, हिंसामयी ही ध्यान है ॥ मानी, प्रपंचों के रचा करता है, बस फंदे सदा । मिलती कभी शुद्धात्म की, उसको नहीं सुख-सम्पदा ॥ मिथ्या पदार्थों में जो राग होता है, उसी के कारण मान का प्रादुर्भाव हुआ करता है। मान के होने से हृदय में सदा हिंसानंदी रौद्र ध्यान बना रहता है । इसका पात्र सांसारिक प्रपंचों में ही पड़ा रहता है और जो सारभूत शुद्धात्म तत्व है उस पदार्थ का उसे स्वप्न में भी दर्शन नहीं होता है।
SR No.010538
Book TitleSamyak Achar Samyak Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Maharaj, Amrutlal
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy