SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 118
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७८ ] . ... सम्यक् आचार काम कथा च वर्मत्वं, वचनं आलाप रंजनं । ते नरा दुष माहंते, पर दारा रतो सदा ॥१३८॥ जो नित निरन्तर काम की संवर्धिनी विकथा कहें । जो नर निरन्तर विपय, चर्चा ही में आनंदित रहे । ऐसे पुरुष, रखते पर-स्त्री--रमण की जो भावना । संसार--अटवी में निरन्तर, दुःख सहते हैं घना ॥ जो परस्त्री रमण के भावों में आसक्ति रखते हैं, विषयभोग की कहानियों को बहुत ही आनन्द और प्रेम के साथ सुनते हैं तथा काम-भावना को बढ़ाने वाले वचनों में मगन रहते हैं, वे पुरुप इस मंमार ममुद्र में विविध भांति के दुःम्ब सहा करते हैं। विकहा अश्रत प्रोक्तं च, कामार्थ श्रुत उक्तयं । श्रुतं अन्यान मयं मूडं व्रत पंड दार रंजितं ॥१३९॥ विकथा मयो श्रुति का सुनाना. यह कुशील महान है । कामोत्पादक शास्त्र पाठन भी कुशील समान है। रमना कुशास्त्रों में अरे. यह भी कुशील कराल है । वत खण्ड करना भी कुशील. अब्रह्म है, विकराल है । परमी सेवन कंवल कुशील को ही व्यक्त नहीं करना । विकथा से भरे हुए, विषय भोगों से पूरा तथा काम को उत्पन्न करने वाले व अज्ञानता से सने हुए इन सब शाम्रों का जनसाधारण के बीच कथन करना यह भी परस्त्री गमन के ममान दोपहै। लिये हुए व्रतों को भंग कर देना, इसमें भी वही पाप लगना है जो कुशील सेवन में।
SR No.010538
Book TitleSamyak Achar Samyak Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Maharaj, Amrutlal
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy