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________________ दर्शन एव योग के विकास मे हरिभद्र का स्थान [२६ इतनी दूर गिरिनगर के साथ उसका सम्बन्ध - यह तनिक अचरज-सा मालूम होता है । शायदं वह सम्बन्ध केवल राजकीय होगा, परन्तु पूर्ववर्ती नन्दों और उसके पौत्र अशोक आदि के जीवन का जब हम विचार करते हैं और राजकीय सम्बन्ध के साथ पहले ही से चले आनेवाले धार्मिकता के अनिवार्य संसर्ग के विषय मे जब हम सोचते हैं, तब कम से कम ऐसा मानने मे कोई अडचन नहीं है कि गुजरात के साथ चन्द्रगुप्त का जो सम्बन्ध था उसमे धर्म-परम्परा का भी कुछ-न-कुछ प्रभाव होना चाहिए । परन्तु वह चाहे सो हो, उसके पौत्र अशोक मौर्य के धर्मशासन यह स्पष्ट रूप से सूचित करते है कि अशोक की सत्ता गुजरात पर थी,१ परन्तु वह केवल राजकीय नही थी; उसमे धार्मिकता का भाग मुख्य था । अशोक तथागत बुद्ध का पक्का अनुयायी था, परन्तु वह कट्टर साम्प्रदायिक नही था उसकी उदारता विश्व इतिहास मे अद्वितीय थी, ऐसा उसके धर्मशासन कहते है।३२ अशोक के धर्मशासनो पर से इतना कहा जा सकता ३१ देखो-श्री रसिकलाल छो० परीख 'काव्यानुशासन' माग २, प्रस्तावना पृ० २५-६, मूल लेख के लिए देखो भरतराम भा० मेहता 'अशोकना शिलालेखो।' ३२ देवो का प्रिय प्रियदर्शी राजा सब पाखण्डो को (सम्प्रदाय के लोगो को) तथा प्रवजितो (साधुओ) को तथा गृहस्थो को दान से एव विविध पूजा से पूजता है । परन्तु सव पाखण्डो (सम्प्रदायो) के सार की वृद्धि (देवो के प्रिय प्रियदर्शी राजा को जैसी लगती है) वैसे दान और पूजन देवो के प्रिय (प्रियदर्शी राजा) को नही लगते । परन्तु (यह) सार की वृद्धि अनेक प्रकार की है; और उसका मूल वाचागुप्ति (बोलने मे सभालना) है। अपकारण से (तुच्छ कारण से) परपाखण्डगर्हणद्वारा (दूसरो के सम्प्रदायको निन्दा करके) आत्मपाखण्डपूजा (अपने सम्प्रदायकी पूजा) न हो (अच्छी नही)। प्रकारण से (योग्य कारण से) यह लघूकृत हो सकती है (उसकी निन्दा की जा सकती है। परन्तु तो भी उसे प्रकारण से (योग्य कारण से) परपाखण्ड की (दूसरे के सम्प्रदाय की) पूजा करनी चाहिए । ऐसा करने पर वह अपने सम्प्रदायको बढायगा, और दूसरे के सम्प्रदाय पर उपकार करेगा । इससे अन्यथा (उल्टा) करने पर वह अपने सम्प्रदायको क्षीण करेगा (नष्ट करेगा) और दूसरे के सम्प्रदाय पर भी अपकार करेगा। इसके अतिरिक्त 'मैं अपने सम्प्रदाय की शोभा बढाता हू, ऐसा समझकर जो कोई भी अपने सम्प्रदाय को पूजता है, और केवल अपने सम्प्रदायकी भक्ति से (भक्ति के कारण) दूसरे सम्प्रदाय की गर्हणा (निन्दा) करता है वह वैसा करने से अपने सम्प्रदाय की बहुत भारी हानि करता है । अन्यमनस् के (भिन्न धर्म के ऊपर मन लगाने वाले मनुष्य के) धर्म को सुनना तथा (उसकी) शुश्रूषा करना यही अच्छा (समवाय अथवा) सयम है। देवो के प्रिय (प्रियदर्शी राजा की यही इच्छा है कि सब पाखण्ड (सम्प्रदाय के लोग) बहुश्रुत (बहुज्ञानी) तथा कल्याणगम (कल्याण की ओर जाने वाले, कल्याणसाधक) बनें। जो वहा-वहा (अपनेअपने सम्प्रदाय मे) प्रसन्न हो उनसे कहना (कि) सव सम्प्रदायो के सार की महती वृद्धि (देवो के प्रिय प्रियदर्शी राजा को जैसी लगती है) वैसे दान और पूजन देवो के प्रिय (प्रियदर्शी राजा) को नही लगते । -अशोक के शिलालेख मे १२ वा शासन
SR No.010537
Book TitleSamdarshi Acharya Haribhadra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay, Sukhlal Sanghavi, Shantilal M Jain
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1963
Total Pages141
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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