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________________ समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र संजीवनीचार' का दृष्टान्त दिया है।५६ इस दृष्टान्त का भाव ऐसा है : कोई एक स्त्री अपने पति को बस मे रखने के लिए किसी के पास से जडी-बूटी लेकर और अपने पति को खिलाकर पशु के रूप मे उसे चराती थी और वह जब चाहे तब दूसरी जडी बूटी से अपने पति को पशु मे से पुरुष बना देती थी। एक बार वनस्पति के जंगल मे वह स्त्री वारक जडी-बूटी भूल गई और गहरे विषाद मे डूब गई । इस बीच उस जंगल मे से होकर जानेवाले किसी योग्य महानुभाव ने उस स्त्री का दुख जानकर उद्गार निकाला कि इसमे विषाद की क्या बात है ? वह वारक जडी-बूटी भी वही है । सभी वनस्पतियो को चराया जाय तो वह वारक औषधि भी बैल खा जायगा जिससे वह अपने असली रूप मे आ सकेगा। यह वाणी सुनकर उस स्त्री ने वैसा ही किया, जिससे वह पुरुष अपने मूल रूप मे आ गया। सम्भव है यह दृष्टान्त पुराना हो, परन्तु इसका विनियोग सर्वदेवो के प्रति समान-आदर रखने के भाव मे करके हरिभद्र ने भिन्न-भिन्न पंथो के बीच देवो के नाम पर होने वाले झगडो को मिटाने का सर्वधर्म समन्वय सूचक एक सामाजिक मार्ग दिखलाया है। उन्होने गुरुओं एवं देवो के प्रति भक्ति-भावना के अतिरिक्त दूसरे एक महत्त्व के सामाजिक कर्तव्य का भी सूचन किया है। वह है रोगी, अनाथ, निर्धन आदि निस्सहाय वर्ग की सहायता करना, परन्तु वह सहायता ऐसी न होनी चाहिए कि जिससे अपने आश्रित जनो की उपेक्षा होने लगे५७ । आध्यात्मिक अथवा लोकोत्तर धर्म के साथ ऐसे अनेकविध लौकिक कर्तव्यो को संकलित करके हरिभद्र ने जैन परंपरा के प्रवर्तक धर्म का महत्त्व जिस विशदता से समझाया है वह निवृत्तिलक्षी जैन-परंपरा मे टूटती कडी का सन्धान करता है। (८) जैन-परम्परा मे आध्यात्मिक विकासक्रम की सूचक चौदह भूमिकाएं 'गुणस्थान' के नाम से प्रसिद्ध हैं, परन्तु हरिभद्र ने उन भूमिकाओ को योगबिन्दु मे अध्यात्म, भावना, ध्यान, समता और वृत्तिसंक्षय इन पांच भागो मे विभक्त करके ५६ चारिसजीवनीचारन्याय एप सता मत । नान्यथाऽवेष्टसिद्धि स्याद्विशेषेणादिकर्मणाम् ।। योगविन्दु, ११६ ५७. पात्रे दीनादिवर्गे च दानं विधिवदिष्यते । पौप्यवर्गाविरोधेन न विरुद्ध स्वतश्च यत् ॥ -योगविन्दु, १२१
SR No.010537
Book TitleSamdarshi Acharya Haribhadra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay, Sukhlal Sanghavi, Shantilal M Jain
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1963
Total Pages141
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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