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________________ योग - परम्परा में हरिभद्र की विशेषता CE अर्थात् छो दर्शनों के भिन्न-भिन्न मत है, वे ग्रापस मे लडते-झगड़ते रहते है । एक के स्थापित किये हुए मत का दूसरा खण्डन करता है और अपने आपको बडा समझता है । विभिन्न मत-मतान्तर अन्धेरे कुएँ के सदृश हैं । उनके झगडे का कभी निबटारा होता हो नही है । (७) हरिभद्र ने धर्मबिन्दु यादि अपने दूसरे ग्रन्थों में सामाजिक धर्मो के आचरण पर जो भार दिया है वह योगबिन्दु मे भी है, परन्तु योगबिन्दु मे उसकी विशेष स्पष्टता है | इसे देखने पर ऐसा प्रतीत होता है कि हरिभद्र ने जैन और वैसी दूसरी निवृत्तिमार्गी परम्पराम्रो के वैयक्तिक हित साधन का दृष्टिबिन्दु देखकर सोचा होगा कि कोई भी व्यक्ति सामाजिक जीवन के सहकार के विना धर्म का पालन कर ही नही सकता । प्राध्यात्मिक मार्ग पर प्रगति करनी हो तो उसकी पहली शर्त यह है कि सामाजिक धर्म एवं मर्यादाओ का योग्य पालन करके मनुष्य को अपना मन विकसित करना चाहिए और ग्रनेक सद्गुरो को जीवन मे उतारना चाहिए। बहुत बार ऐसा होता है कि मनुष्य प्राध्यात्मिकता के नाम पर अवश्य श्राचरणीय सामाजिक कर्तव्यो को भी जानबूझ कर छोड़ देता है । ऐसे किसी उदात्त विचार से हरिभद्र ने प्राध्यात्मिक मार्ग की प्राथमिक तैयारी के रूप मे 'पूर्व सेवा' 3 के नाम से अनेक कर्तव्य सूचित किये हैं । उसमे 'गुरुदेवादिपूजन' (श्लोक १०९ ) शब्द से अनेक बातें सूचित की है । वे कहते हैं कि माता, पिता, कलाचार्य, उनके संबंधी, वृद्ध एवं धर्मोपदेशक – ये सब गुरुवर्ग मे श्राते है ।५४ इन सबकी योग्य प्रतिपत्ति अर्थात् सेवा-शुश्रूषा करनी चाहिए । देवपूजा के विषय मे वे कहते हैं कि महानुभाव गृहस्थो के लिए सब देवो का समुचित प्रादर कर्तव्य है, इसी से अपने मान्य देव से भिन्न दूसरे देवो के प्रति रुचि ग्रथवा हीन भाव की वृत्ति दूर हो सकती है | " ऐसी सर्वदेव - नमस्कार की उदात्त वृत्ति अन्त मे लाभदायी ही सिद्ध होती है - यह बतलाने के लिए उन्होने 'चारि ५३ योगबिन्दु, श्लोक, १०९ से । ५४ योगबिन्दु, श्लोक, ११० । ५५. श्रविशेपेण सर्वेपामधिमुक्तिवशेन वा । गृहिणा माननीया यत् सर्वे देवा महात्मनाम् ॥ सर्वान्देवान्नमस्यन्ति नैक देव समाश्रिता । जितेन्द्रिया जितक्रोधा दुर्गाण्यतितरन्ति ते ॥ योगविन्दु ११७-८
SR No.010537
Book TitleSamdarshi Acharya Haribhadra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay, Sukhlal Sanghavi, Shantilal M Jain
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1963
Total Pages141
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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