SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 40
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कृष्ण और महावीर! (श्री हरिसत्य भट्टाचार्य, एम. ए., बी. एल.) [ श्रीकृष्ण बावीसवें तीर्थकर आरिष्टनेमिके समकालीन थे। जैनियोंके शेठ शलाकापुस्खोंमें वे अन्तिम नारायण थे । 'हरिवंश पुराण में उनका विशद चरित्र मिलता है। नी श्रीकृष्णजीको भावी तीर्थकरके रूपमें पूजते हैं। वैष्णवजन उनके दर्शन भक्तरूपमें करते है और उनकी सरस लीलाओंके बाह्य रूपमें मन्न रहते हैं। कृष्ण लीलाके आध्यात्मिक रहस्यको वे नहीं परिवानते । चीरहरणलीला उनको आत्मबोध कराने कारणभूत नहीं होती। मजजन नहीं समझते कि गोपियों इन्द्रियोंकी प्रतीक हैं-उनको वस्त्रादि विहीन करना वासनाओंको छीन लेना है। किन्तु कृष्ण-उपासनाका दार्शनिक रूपमा है, जिसका प्ररूपण 'भगवद्गीता में हुआ है । श्रीमहाचार्यजीने कृष्णजीकी तुलनामें उनके इस दार्शनिक रूपकोही दृष्टिम रक्खा है। पाठक इस अध्ययनसे दोनों महापस्योको ठीक रूपमें समझ सकेंगे। –का०प्र०] हमारा यह लोक दुख-शोककी लीलाभूमि है। राजमुकुटको धारण किये हुये शक्तिशाली सन्नाट्का हृदयमी यहा पीडासे खाली नहीं है। सयोग-वियोगको आखमिचौनी यहा होती रहती हैं । रोग, शोक और मृत्युके दुख नित नये होते हैं। दुनिया में उनसे वचा कौन है ! महावीरके विचारशील मन पर इन वार्तोगी गहरी छाप पड़ी थी दुनियाकी चीजोंमें उनके लिये न कोई आकर्पण था और न मोह । छटवीं शताब्दि ईस्वी पूर्वके प्रवल शासक क्षत्रिय सिद्धार्थ और वैशालीके प्रसिद्ध राजा चेटककी पुत्री रानी त्रिशलाके उस विचक्षण पुत्रका बुद्धिकौशल, बल और विवेक सर्वोपरि था। वीरने पूछा । " इस दुखसे मुक्ति पानेकाभी कोई मार्ग है। मानवके अनन्त दुखशोककामी कोई अन्त है ?" तीस वर्षके उन युवा और राज्य के उत्तराधिकारी महावीरने इस प्रश्नको हल करनेके लिये घरबार छोडा और आत्मसयमकी कठोरतम साधनामें वह लीन हो गये। साधनाका फल उन्हें मिला, जो वह चाहते थे । वह सर्वज्ञ हुये। उन्हें परम सुखका मार्ग सूझ गया। वह अपने युगके महा मानव हुये। उनके हृदयमें यू तो सबके लियेही विश्वप्रेमका सोता वहता था, परतु तिरस्कृत, अपमानित और दलित जीवोंके प्रति उनकी करुणा अपार यी। उन्होंने सबके लिये अनुभव किया और सबके लिये मोक्ष मार्गकी घोषणा की ! दलित दासकन्या रूप चन्दना पर वह सदय हुये और वह आर्यिका सघकी नेत्री हुई। महावीरने अपने अमयदायक सुखसन्देशको तीस वर्षों तक और-ठौर विचर कर फैलाया। सन् ५२७ ई० पूर्वमें जब उन्होंने पावापुरसे निर्वाणधाम पाया, तो यह स्वाभाविक था कि बडे बडे राजा और सारा जनसमुदाय कृतज्ञता ज्ञापनके लिये उनका निर्वाण कल्याणोत्सव धूमधामसे मनावा और दीपावली रचाता ! हुआभी यही । । महावीरके इस सचित वृत्तान्तसे स्पष्ट है कि उनके सदेशकी आधारशिला अहिंसा थी।
SR No.010530
Book TitleMahavira Smruti Granth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain, Others
PublisherMahavir Jain Society Agra
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy