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________________ श्री कामताप्रसाद जैन। कि " अजितसे लेकर पार्श्वनाथ पर्यन्त बाईस तीर्थहरोंने सामायिक संयमका और ऋषभदेव तथा महावीर भगवानने छेदोपस्थापना सयमका उपदेश दिया। " छेदोपस्थापना गरित्रमे पंचपापादिके दोपोंको दूर करनेका प्रथक-प्रथक विधान होता है । यह भेदकम मानव प्रकृति पर समयके प्रभावका ऋणी था। इसी बातको वट्टकेर आचार्यनेमी स्पष्ट किया है कि “आदि और अन्तके दोनो तीर्थंकरों के शिष्य चलचित्त और मूढमना होते हैं। शास्त्रका बहुत बार प्रतिपादन करने परभी उसे नहीं जानते उन्हें क्रमशः अजुजल और वजड समझना चाहिये, इस लिये उनके समस्त प्रतिक्रमण-दडकोंके उच्चारणका विधान बतलाया गया है और इस विषयमें अपे घाडेका दृष्टात दिया गया है!" यह शास्त्रीय उल्लेख तीर्यवरोके उपदेशोंकी भिन्नताके द्योतक है, जो मूलतः अहिंसा पर अवलम्बित ये ! इनसे उनके जीवनका वैचित्र्यभी स्पष्ट होता है । अषभ और महावीर जीवनकी तुलना इस अन्तरको व्यक्त करती है। ऋषमका विवाह हुआ और सन्तानभी; किन्तु महावीर बालब्रह्मचारी रहे ! अमने राजव्यवस्थापक और राष्ट्रपिताका पद पाया, किन्तु महावीर युवराज रहे। ऋषम राजसुख भोग कर साधु हुये । महावीर युवराज पदको त्याग कर तीस वर्षकी अवस्था दीक्षित हुये । मानवोंकी अनता के कारण ऋषभदेवको भोजनका अन्तराय-उपसर्ग हुआ। महावीर पर समयकी वक्रताका उपसर्ग हुआ ! सम्प्रदायगत द्वेषने रुद्रको चौखला दिया ! ऋषभदेवने केवली होतेके साथही उपदेश दिया; किन्तु महावीर सर्वश होने परमी मौन रहे-इन्द्रभूति गौतमका समागम हुआ तत्र उनकी देशना हुई। इस प्रकार दोनों तीर्थक्षरोंके जीवनमें महान् अन्तर है। यह अन्तर ही दोनोंको ऐतिहासिक महापुरुष सिद्ध करता है ! ऋषभदेव आर्यसभ्यता और अहिंसा संस्कृतिक प्रतिधापक और जैन धर्मके संस्थापक हुये, तो महावीर अहिंसा सस्कृतिके शोधक उन्नायक और जैन धर्मके पुनरोद्धारक हुये ! (चित्र न. १) मोडनजोदडोकी प्राचीन सभ्यतासे लेकर आजतक ऋपमकी उपासना होती आ रही है। १. मोइनजोदडोके पुरातत्वमें ऐसी मुद्रायें और चिन्ह मिले हैं जो जैन तीर्थंकरोंके अस्तित्वके पोषक हैं। इनका विशद वर्णन हमने अन्यत्र लिखा है, जो 'विशाल भारत के पुरातत्व विशेषाफ और 'जैन ऍटोकेरी'में (१४१) इष्टव्य है । मोइनजोदडोसे उपलब्ध मुद्राओं पर सहित योगियोंकी आकृतियां बिल्कुल दिगम्बर मुनियों जैसी नग्न और ध्यानमुद्रामय कायोत्सर्ग आसनमें है। मो०. चन्दा उन्हें बरमदेवकी मूर्तिका पूर्वरूप मानते हैं। ("A standing Image of Jain Rishabha in Kayotsarga posture closely resembles the pose of the standing deities on the Indus seals . .. It may be a proto-type of Rishabha etc " Modem Review, Aug. 1932) प्रो० माणनायने मुद्रा न.४४९ पर जिनेश्वर ( जिनइइसर ) शब्द पढा था। ( इंडियन हिस्टॉ. कारटली, मा० ८ परिशिष्ट इन्हस सोल्स पृ. १८) उन्होंने सिंधुउपत्ययकाके लोगोंके, धर्मका सम्बन्ध जैन और हिंदू धर्मोंसे सिद्ध किया है । ( The names and aymbols on Plstes annexed would appear to disclose a connection between the old religious cults of the Hindus and Jaunas with those of the Indus people "(Ibid ) मोइनजोदडोकी दो एक मूर्तिया तो बिल्कुल जैनमूर्ति है ( चित्र न. १. व १५१६ ) धाराशिव तेरपुरकी गुफाओंमें संभवतः ईसा पूर्व 'सातवी आठवीं शतान्दिकी तीर्थर मूर्तियां उपलब्ध हैं। (फाकुंडचारित-कारंजा भूमिका पृ० ४१.४८) मौर्यकालकी जिन प्रतिमा पटनासे मिली हैं। दो हजार वर्ष पहले मथुराफे लोग ऋषमकी मूर्ति बनावे और उनकी विनय करते थे। (प्रीयताम्मगवानृषभत्री ) Ep Indica, I, P 386. .
SR No.010530
Book TitleMahavira Smruti Granth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain, Others
PublisherMahavir Jain Society Agra
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size9 MB
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