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________________ २०० भ० महावीर स्मृति-ग्रंथ । विवाह, जीवन-मरण, मुभिश-दुर्मिल, सन्तानप्राप्ति, रोगारोग, गमनागमन, राष्ट्र और देशकी शान्तिअशान्ति, जय-पराजय, सन्धि-विग्रह, वृष्टि-अतिवृष्टि-अनावृष्टि, धान्योत्पत्ति, समर्प-महर्व, ईति-मीति इत्यादि विभिन्न जीवनोपयोगी विचारणीय विषयोंका विवेचन किया है। इस ग्रन्थमें ऐसा एकमी लौकिक विषय नहीं है, जिस पर ग्रन्थकर्ताने विवेचन न किया हो। प्रश्न विषय तो जैन ज्योतिषका औरभी महत्त्वपूर्ण है। इसमें प्रश्नकर्ताले प्रश्नानुसार बिना जन्मकुण्डलीके फल बताया गया है। तात्कालिक फल बतलाने के लिये इस अगकी वडी महत्ता है। प्रश्नों का फल ज्योतिषमें तीन प्रकार से कहा गया है १. प्रश्न समयकी लमकुण्डली बना कर उसके द्वादश भावोंमें स्थित ग्रहोंके शुभाशुभानुसार फल कहना । इस प्रक्रियामें फलादेश सम्बन्धी समस्त कार्रवाई समयके ऊपर अवलम्बित है। यदि समयमें तनिकभी हीनाधिकता हुई तो फलादेशमें बहाही अन्तर पह जाता है। जैनाचार्योंने इस प्रक्रियाका प्रयोग बहुत कम किया है। दो-चार मन्यमिही यह विधि मिलती है। २, स्वर सम्बन्धी सिद्धान्त है । इसमें फल बतलानेवाला अपने स्वर (श्वास) के आगमन और निर्गमनसे इष्टानिष्ट फलका प्रतिपादन करता है । इस सिद्धान्तसे फल बतलाने में अनेक त्रुटियोंकी संभावना है क्योंकि स्वरका वास्तविक ज्ञान योगी व्यक्तिही कर सकता है । सर्वसाधारणके लिये स्वरका साधन नितान्त कठिन है । इसी लिये जैन ज्योतिपर्मे इस सिद्धान्तका प्रयोग केवल नाममात्रकोही मिलेगा। कारण स्पष्ट है कि जो योगी हैं वे तो वातावरणको देख करही भविष्यत या भूत कालकी घटनाओं को समझ जाते हैं। किन्तु साधारण व्यक्तिका जान उतना विकसित नहीं होता है जिससे वह ग्रन्थ पढ़ करमी उस चीजको समझ सके । इस योगजानकी प्राप्ति साधनासे होती है, अतएव इसे जैनाचार्याने ज्योतिपमें स्थान नहीं दिया है। __३, प्रश्नकर्ता के प्रश्नाक्षरोंसे फल बतलाता है । इस सिद्धान्तका मूलाधार मनोविज्ञान है, क्योंकि विभिन्न मानसिक परिस्थितियोंके अनुसार प्रश्नकर्ता भिन्न भिन्न प्रश्नाक्षरोंका उच्चारण करते हैं। यह सिद्धान्त अत्यन्त सरल और व्यावहारिक है; क्योंकि कोईभी साधारण व्यक्ति पृच्छकके प्रश्नासरोंको लिख कर जैनाचार्यों द्वारा प्रतिपादित विधिसे विश्लेषण कर फल कह सकता है। जैन ज्योतिपमें इसी सिद्धान्तको लेकर दर्जनों ग्रन्योका निर्माण हुआ है। इस प्रक्रियाकी मनोविज्ञानके सिद्धान्तों के अनुसार सभी करनेसे ज्ञात होता है कि वाय और आम्यन्तरिक दोनों प्रकारकी विभिन्न परिस्थितियोंके आधीन मानव मनकी भीवरी तहमें जैसी भाषनाएँ छुपी रहती है वैसे प्रश्नाक्षर निकलते हैं। क्योंकि शरीर एक मन्त्रक समान है जिसमें किसी भौतिक घटना या क्रियाका उत्तेजन पाकर प्रतिक्रिया होती है। यही प्रतिक्रिया मानवके आचरणसे प्रदर्शित हो जाती है। कारण अवाघ मावानुषङ्गसे हमारे मनके अनेक गुप्त भाव भावी शक्ति, अशक्तिके रूपमें प्रकट हो जाते हैं वथा उनसे समझदार व्याक्ति सहजमेंही मनकी धारा और उससे घटित होनेवाले फलके समझ लेता है।
SR No.010530
Book TitleMahavira Smruti Granth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain, Others
PublisherMahavir Jain Society Agra
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size9 MB
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