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________________ श्री नेमिचन्द्रनी जैन । १९७ बारा मिलनेवाले फलका त्याग कर सकता है। इसलिये जैनाचार्यों द्वारा प्रतिपादित ज्योतिष भविष्य फल प्रतिपादक होने के साथ साथ कर्तव्यकी ओर सावधान करनेवालामी है। जैन मान्यताका एक मात्र ध्येय आत्मिक विकास है, अतः बोतिष इस विकासमें सब प्रकारसे सहायता प्रदान करता है। यद्यपि प्रारम्भमें जैनाचार्योंने वैदिक ज्योतिषके समानही केवल समयशुद्धिको अवगत करने के लिये इस शास्त्रके बीज मूलतत्त्वाका विकास किया था। पर आगे जाकर जीवनका क्षेत्र जितना बद्धता गया ज्योतिषके विषयममी उतनाही परिष्कार एव विकास होता गया तथा मानव जीवनके विभिन्न आलोच्य विषयोंका सकलनभी इस शास्त्रके अन्तर्गत माना जाने लगा। ' जैन ज्योतिषर्मे व्यञ्जन, अग, स्वर, भौम, छिन्न अन्तरिक्ष, लक्षण और स्वप्न इन आउ निमित्तों द्वारा भूत, भविष्यत और वर्तमानकालीन सुखदुःख, जीवन-मरण प्रमृति अनेक रहस्योंका उद्घाटन किया गया है। व्यावहारिक पक्षको पुष्ट करनेके लिये जैन ज्योतिर्विदोंने फलित अग पर अत्यधिक रचनाएँ की है। अभी तक उपलब्ध जैन ज्योतिपम मुहूर्त, प्रश्न, जन्मकुण्डली, वर्षफल एष संहिता सम्बन्धी अन्य जीवनके आलोच्य विषयोंका प्रतिपादन सरल और विस्तृत रूपमें मेरे देखनेमें आया है । जैन ज्योतिषको प्रतिपादनशैली इतनी सरल और आशुवोध करानेवाली है कि मगलाचरणके पश्चात् प्रत्येक ग्रन्थके प्रारम्ममही सारे लौकिक वयं विषयको दो चार गाथाओं या श्लोकों बता दिया जाता है। उदाहरणार्थ कुछ ग्रन्थों की व्यावहारिक शैलीका नीचे विवेचन किया जाता है। व्यवहारचर्चा नामक ग्रन्थमै रचयिताने अन्यारम्भमें ग्रन्थ निर्माणके उद्देश्य और विषय प्रतिपादनका निर्देश एकही श्लोकर्मे कर दिया है --- दैवज्ञदीपकलिका व्यवहारचर्या आरम्भासद्धिमुदयप्रभदेव एताम् । शास्तिक्रमेण तिथि वार' म' योग राशि: गोचर्य कार्य गम वास्तु विलग्न -मित्रैः व्याख्या--दैवज्ञाना गणकामा दीपकलिकामिव स्पष्टार्थ प्रकाशितत्त्वात् व्यवहारः शिष्टजन समाचारः शुमतिथिवारमादिषु शुभकार्यकारणादि रूपस्तस्थचर्या इति कर्तव्यता पाऽभिधेयतया यस्या सा वाम । प्रयोजन च द्वियानन्तर परपरंच । तत्रानन्तरप्रारम्भसिद्धिग्रन्थस्य प्रयोजनेश्रोतृणां व्यवहारकौशलसिद्धिः, परपर तु यथावद्वयवहार प्रवृत्या धर्मार्थकासरुपाणा पुरुषार्थाना सिद्धिः, क्रमान्मोक्षपुरपार्थस्यापीति। अर्थात् आचार्यने व्याख्यामें बतलाया है कि व्यवहारको सम्पन्न करनेके लिये शुभ तिथि, वार, नक्षत्र, योग, करण, राशि आदिको अवग्रह कर प्रत्येक कर्तव्यमको उचित समय पर सम्पादित करना चाहिये । इन कर्तव्योंकी यथासमय समाप्त करनेसे लोकाचारका पालन ठीक होताही है, साय ही धर्म, अर्थ और काम इन पुरुषायोंके सेवनमे प्रवीणता पास होती है। इनके हेयोयादेयकी विवेकधीलवादी मोक्ष पुरुषार्यकी प्राप्तिमें सहायक होती है। अतएव तिथि, वार, नक्षा प्रभृति ग्यारह
SR No.010530
Book TitleMahavira Smruti Granth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain, Others
PublisherMahavir Jain Society Agra
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size9 MB
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