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________________ भगवान महावीर और उनकी विचार-धारा । (ले. श्री. पं. कैलाशचन्द्रजी शास्त्री, काशी) चैत्रका महीना जैन-धर्मके अन्तिम तीर्थकर भगवान् महावीरका स्मारक है। २५४६ वर्ष पहले वे इसी पुण्य मासमें अवतीर्ण हुये थे। उनकी जन्म-तिथि चैत्र शुक्ला प्रयोदशी भारतके इति हासमें स्मरणीय है। इस तिथिने उस महापुरुषको जन्म दिया था, जिसने संसारको 'सत्वेषु मैत्री'. का शुभ सन्देश देकर क्षुद्रसे क्षुद्र जीवधारीके प्रति आत्मीयता प्रदर्शित की थी। भारत आज दरिद्र है, किन्तु फिरभी श्रीसम्पन्न है । उसकी श्री बे विभूतिया है, जिन्होंने समय समय पर मारतमें जन्म लेकर भारतको पुण्यम बना दिया। उन्हीं विभूतियों में से भगवान् महावीर थे। वे महावीर थे, किन्तु हिंसा, संहार, अत्याचार, परपीडन और क्रूरताके नहीं, अहिंसा, करुणा, संरक्षा, परदुःख-कातरता और शान्तिके महावीर थे। वे क्षत्रिय पुत्र थे। उनके पिता सिद्धार्य एक क्षत्रिय राजा थे। उनकी माता त्रिशला पन्जियोंके प्रजातन्त्रके मुखिया चेटककी पुत्री यी | अतः वे न केवल क्षत्रिय पुत्र थे, किन्तु राजपत्रमा थे। वे चाहते तो राजा हो सकते थे, प्रजाको मला कर अपने राजकोष भर सकते थे और उसके बल पर एक बड़ी भारी सेना रख कर बहुतसे हरेभरे देशोको उजाड बना कर, अनेक माताओंको निपूती करके और असख्य ललनाओंकी मांगका सिन्दूर पोंछ कर महाराजा बन सकते थे, और इस तरह रानशक्तिके द्वारा जनताके हृदयोंको भातङ्कित करके 'वीर 'की उपाधिमी प्राप्त कर सकते थे; पर 'महावीर' नहीं कहला सकते थे। बीरमसू भारत में वीरोंकी कभी नहीं है, उसका आकाश-मण्डल सदा उन नक्षत्रोंसे जगमगाता रहा है। किन्तु इन शारीरिक योद्धा वीरीक मध्यमें उनसे ऊपर उठकर यदि कोई आत्मिक योद्धा महावीर भारतमें न जन्मा होता, तो न केवल भारतके अपितु विश्वके आकाश मण्डलमें सदा कृष्ण पक्षही दृष्टि सोचर होता। यह सच है कि महावीर दुनियासे भागने वाले थे। दुनियाने उन्हें अपने रग रगना चाहा, किन्तु फिरभी वे उससे बच निकले । उनके सामनेभी यौवनने अपने प्रलोभनोंके पांसे फेंके, किन्तु दाब खाली गये। माता पिताको ममताने अपना नाळ बिछाया, माताके आसुओंने उनका रास्ता रोकना चाहा, किन्तु हिंसासे त्रस्त संसारको असख्य माताओंकी आखोंसे सदा बहनेवाली आंसुओंको धारामें माताके आसू योही बह गये। उन्होंने समझाया -- 'माता! मैं वो केवल तुमसेही विलग हो रहा हूँ, इस जीपनसेतो विलग नहीं हो रहा हूँ | किन्तु इस दुनियामें तो न - - - - १. तृष्णार्चिषः परिदहन्ति न तृप्तिरासामिटेन्द्रियार्थविमवैः परिवृद्धिरेष। स्थिस्यैव काय परितापहरं निमितमित्यारमवान विषयसौख्य पराङ्मुखोऽभूत् ॥ वृह खर्यमू०
SR No.010530
Book TitleMahavira Smruti Granth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain, Others
PublisherMahavir Jain Society Agra
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size9 MB
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