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________________ १७७ श्री० हजारीप्रसादजी द्विवेदी। १७७ सुण्णउँ पय झायंताह बलि बलि जोइयडाहै। समरसि भाउ परेण सह पुण्णु वि पाउ णासह। यह शून्य क्या है ? मुनि रामसिंह बताते हैं ! शून्य शून्य नहीं है। एक ऐसी अवस्था योगीको प्रास होती है जब वह त्रिभुवनमें केवल शून्यही शून्य देखता है, इस शून्य स्वभावको प्राप्त आत्मा पुण्य और पाप दोनोंको पचा डालता है-- सुण्णं ण होइ मुण्ण दीसइ सुण्णं च तिहुवणे सुग्णं । अवहरइ पाव पुण्णं सुण्ण सहावें गओ अप्पा ।। उन दिनों इस प्रकारके योगीभी थे जो इस शरीरकोही समस्त सिद्धियोंका आश्रय समझते थे । जोइन्दुने उन योगियोंको सबोधित करके कहा है-- ऐ योगी इस घृणास्पद शरीरमेही रममाण होकर तुम लज्जित क्यों नहीं करते। अरे भले मानस तू शानका उपासक है, धर्ममें प्रीति कर, आत्माको निर्मल बना-- जोइय, देहु धिणावणर, लजहि किं ण मंतु। णाणिय, धम्मे रइ करहि, अप्पा विमलु करंतु -प० प्र० २.१५१ अरे ओ योगी, देहकी साधना छोड दे, इससे तेरा मला नहीं होगा। देख, आत्मा इस देहसे मिन्न है, वह शानमय है, उसीको देख और समझ जोइय, देह परिश्चयहि, देह मल्लल होइ। देह विभिण्णउ णाणमउ, सो हुँ अप्पा जोड ॥ इस प्रकार उस युगकी साधनाके अध्ययन के लिये ये जैन अप अत्यतिक उपयोगी हैं। इनकी अधिकाधिक चर्चा वाञ्छनीय है। म.स्स.१२
SR No.010530
Book TitleMahavira Smruti Granth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain, Others
PublisherMahavir Jain Society Agra
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size9 MB
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