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________________ १७६ भ० महावीर स्मृति ग्रंथ समलोह कंचणो विय जीविय मरणो समो समणो। अर्थात् वह श्रमणही 'सम' कहा जाता है जिसके लिये शत्रु और मित्र, सुख और दुःख, प्रशसा और निंदा, लोहा और सोना, जीवन और मरण समान हों। परन्तु परमात्मप्रकाशमें एक दोहा इस दोहके आगे पाया जाता है जिसमें समचित्तको व्याख्या करनेका प्रयास जान पड़ता है । बलदेव (टीकाकार) ने इसे प्रक्षेपक माना है। प्रक्षेपक हो या न हो, दोहा काफी महत्वपूर्ण है मणु मिलियउँ परमेसरइ परमेसरु वि मणस्सु बीहि वि समसि हुवाह पुन चढाव करतु । [ मन परमेश्वरसे मिल गया और परमेश्वर मनसे । दोर्नीका समरसीभाव हो गया, फिर पूजा चढाऊ तो किसे चलाऊ। यह भाव उन दिनोंके शाकों और नाथ मतके सिद्धोंके भावसे हूबहू मिलता है। 'समरस होना' या 'सस्यरस्य माव' उस युगकी साधनामें बहुत प्रचलित और ब्यारक शब्द है। समाधि कालमें शिव और शक्तिका जो मिलन होता है उसे शाक्त साधक समरस्य भाव कहते हैं। पिंड और ब्रह्माण्डकी ऐस्यानुभूतिको नाथ सापक समरसीमाव कहते हैं। इस समरसके अनुभव योगनिष्ट व्यक्ति इतर बातोंसे पीतस्टइ हो जाता है । सिद्धसिद्धान्त सारमें कहा है समरस फरणं वदाम्यथाई परमपदाखिल पिण्डयोरिदानीम् । यदनुभववलेन योगनिष्ठा इतरपदेषु गतस्पृहा भवन्ति ।। और आगे चल कर उसी अन्यमें जावसहितासे समरस होनेके विषयमें एक श्लोक उद्धृत करके बताया गया है कि उस अवस्यामें मन, बुद्धि, सवित्, अहापोह, तर्क आदि सब प्रशमित हा नाते हैं-- यत्रबुद्धिोनो नास्ति सनसंवित पराकला। महापोहौ न तश्च वाचा सत्र करोति किम्। आन पडता है कि समरसमावसे जोइन्दुका कुछ ऐसाही मतलब था। उन्होंने अगसके साप घोषणा की है कि दलिहारी है उस योगीको जो 'शून्यपद का ध्यान करता है और 'पर' (१९ मात्मा) के साथ समरसीमावका अनुभव करता है जिसमें न पाप है न पुण्य है
SR No.010530
Book TitleMahavira Smruti Granth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain, Others
PublisherMahavir Jain Society Agra
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size9 MB
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