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________________ भ० महावीर स्मृति-अंध। एक प्रकाश-किरण सीधी रेखामें चले, तो वह अपने मूल विन्दु पर पहुचेगी जहासे वह शुरू हुई थी। शक्ति स्थितिमी असीम होनेकी स्थिति नहीं बनेगा। क्योंकि फिर एक बारकी शक्ति अनन्तमें विलीन हो जावेगी। यह वास्तवमें एक समस्या है, कि लोकाकाश सीमित है, पर आकाश अनन्त है। परन्तु ऑइटाइन के सापेक्षतावादके सिद्धान्त [ Theory of Relativity ] से यह वात स्पष्ट हो जाती हैं। एडिग्टन इसी बातको इन शब्दों में व्यक्त करता है। Einstiae's theory (of relativity ] Qot offers a way out of this dilemma " space is finite but it has no end," "finite but unbounded" is the usual phrase. आइस्टीनके अनुसार वस्तुकी सत्ता आकाशके सीमा परिमाणर्मे कारण है । विना वस्तु एवं समयके भाकाशकी कल्पना नहीं कर सक्ते । पदार्थही इनका आधार है । पर जैन दर्शनमें यहां मनभेद है। जैन धर्मका जगत लोकाकाश एवं अलोकालाश दोनोंमें व्याप्त है, और वह सम्पूर्ण जगतका एक भाग ( लोकाकाश ) सौमित मानता है। और इसके सार अनन्त आकाश, जबकि आइंस्टाइन सम्पूर्ण जगतको सीमित मानता है, और उसके बाद ऊपर कुछमी नहीं है। "आकाशकी अपेक्षा लोक सीमित है पर कालकी अपेक्षा निम्सीम है। यह सिद्धान्त स्पष्टतः जगतको (अतएव आकाशको नित्य ) अनादि और अनन्त बता रहा है। श्री एन. आर. सेक भी इसी मतमें हैं। तापर्य यह कि वैज्ञानिक आकाशको शून्य नहीं मानते, और इसी लिए अलोकाकाशको नहीं मानते । पर जैसा कि कहा है, कि " ऐसे क्षणकी सत्ता असम्भव है, जिसके पूर्व कोई क्षण न बीता हो" के समान हम यहमी कह सके हैं, कि यह असंगत है, कि आकाश (लोक)के बाद शुद्ध आकाश न हो। उपर्युक्त कथनसे यह ज्ञात होगा कि आधुनिक विज्ञान आकाशके विषय, नित्यता, अनादि, अनंदत्व, व्यापकत्व एवं लोकाकाश (जगत ) सीमित स्वीकार करता है, पर यह स्पष्ट है कि उसे द्रय नहीं मानता। स: अमूर्त द्रव्य | [38] মম-মম তুন্দ্র इन दोनों द्वयोंकी सत्ता जगत्को स्थितिके लिये बहुतही आवश्यक है [ लोकव्यवस्था हेतुत्वाद, राजबार्तिक ] किसीमी एकके अभावमें गडबडी फैल सकती है। धर्म और अधर्मले यहा पुण्य-पार कारण नहीं अपितु गति-स्पिति माध्यम लेना है। द्रव्यसग्रहमें इनका खुलासा इस प्रकार है: गइ परिणयाण धम्मो पुगालजीवाण गमण सहयारी तोयं जहू ठाणजुदाण अधम्मो, पुगालजीवाण ठाग सहयारी छाया जह पहियाणं जीवोंकी गति तथा स्थितिमें सहायक [प्रेरक नहीं ] होना इनका कार्य है। ये दोनों द्रव्य
SR No.010530
Book TitleMahavira Smruti Granth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain, Others
PublisherMahavir Jain Society Agra
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size9 MB
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