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________________ जैनधर्म भौतिक जगत और विज्ञान। (श्री० नंदलाल जैन, वी. एससी., काशी) आजके भौतिक जगत्में वैज्ञानिक उन्नति के कारण प्रास होनेवाले ऐश्वर्य तथा सुखोंकी प्राप्ति तथा उसकी कामनाने प्रत्येक मानव-मस्तिष्क मोह लिया है । फलस्वरूप मानवने अपनी प्राचीनताको -स्वभावको छोडकर नवीनताका पष्ठा पकडना शुरू किया है। वह इसके पीछे पड़ कर अपने धर्म-कर्तव्य-तकको मूल गया है । यह वास्तवर्मे दुःसह परिस्थिति है। बेचारा साधारण मानव स्या जाने कि आजकी उन्नति हमारे पूर्वनोंके अगाध शान एवं परिश्रमकाही फल है। प्राचीन कालके शब्दवेधी वाणकाही एक रूप हमें Sound Ranging की प्रक्रिया में मिलता है। आजकी भापसे चलनेवाली आटाकी चक्की प्राचीन शास्त्रों में वर्णित पारा-चाप यंत्रोंका रूपही प्रतीत होती है। पुराने पुष्पक विमान और आधुनिक हवाई जहाज क्या कोई मिन्न चीजें है ! फर्क सिर्फ इतनाही है कि प्राचीन लोगोंको इतना प्रक्रियावद्ध और अगोपांगादिके विश्लेषणात्मक शानकी प्रणाली न शात हो; इस लिये उन ग्रन्थोंमें हम इनका विशद विवेचन नहीं मिलता । पर इससे यह क्यों समझा लाये कि आज जो कुछ हो रहा है, उसके सामने पुरातन-शान अगम्य है। और इसी लिये इम उसे निरस्कारकी दृष्टिसे देखने लगे । शायद इसी दृष्टिको सामने रख कर, धर्माचाोंने भौतिक विकेचनभी धर्मका अग बताया है। क्योंकि वे वो भविष्यकी सब बाते जानते थे। जिस आधुनिक भौतिकताके पीछे लोग इतने दौड रहे हैं, वह प्राचीन विचारों एवं शासवर्णित तथ्योंका नूतन सस्करणही है। ऐसा कहना चाहिये। कहना तो यहभी चाहिये कि यह सशोषित क्रम-परिवर्धित उस्करण है। इमारे धर्माचार्योंने मौतिक जगत्की जिस वैज्ञानिक तथा तर्कसंगत ढंगसे वर्णना की है। उसकी बडे बडे वैज्ञानिकोंनेमी प्रशंसा की है। मैं सक्षेपमें उसेही पाठकोंके समक्ष रखनेका प्रयास करना। जैनधर्मके अनुसार भौतिक जगत् , जीव तथा पांच प्रकारके अनीव पिद्दल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल] इस प्रकार, छह द्रव्योसे बना है। इनमें समस्त चराचर जगत् व्याप्त है। पुल द्रन्यसे हम समस्त भौतिक पदार्थों और शक्तिों को लेते हैं जो दृश्य हैं । धर्मसे गतिमाध्यम [पानीमें मछलीके समान गमनमें सहायक ], अधर्मसे स्थितिमाध्यम [ पथिकके लिये वृक्ष-छायाके समान स्थिति, सहायक], आकाशमें अन्य पाच द्रव्योंका अधिकरण-आधार-त्यान, एवं कालचे जगन्नियन्त्री शक्तिका भर्य लेते हैं । जीवसे आत्माका महण होता है, जिसका स्वमाव चेतना है। दूसरे शन्दोंमें हम यहमी कह सकते हैं कि यह जगत मूर्त (पगल) एवं अमूर्त [अन्य पाच ] द्रन्योंसे बना है। इन
SR No.010530
Book TitleMahavira Smruti Granth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain, Others
PublisherMahavir Jain Society Agra
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size9 MB
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