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________________ प्रो० हेल्मुथ फॉन ग्लास्नाप्प। ११५ वर्तमान कालमें भी कई जैनों ने यूरूपमें अपने धर्मका प्रचार करनेका प्रयास किया है और उनके प्रयास से अमेरिका और इंग्लैंड में कितने ही स्त्री पुरूष जैनधर्म मे दीक्षित हुये है । सन् १८८३ ई. में शिकागोमें हुये विश्वधर्म सम्मेलन में श्री वीरचद राघवजी गाधी गये थे। तब उन्होंने अमेरिका के कई नगरीम भाषण देकर 'गाधी फिलॉसिफिकल सोसाइटीकी स्थापना की थी। अमेरिकासे वह इग्लेंड गये और वहां भी उन्होने धर्मप्रचार किया । सन् १८७५ में वह भारत लौटे । किन्तु उनको धर्मप्रचारकी लगन थी | इस लिये सन् १८८६ में फिर अमेरिका गये और यहाँ से इंग्लैंड पहुंचे थे । सन् १९०१ में वह घम्बई आकर स्वर्गवासी हुये थे। उसी समय इग्लैंड में स्व. जज जुगमदरदास जैनीने भी धर्मप्रचार का उद्योग किया था | इनके प्रयल से २४ अगस्त १९१३ ई० को लंदन में “ महावीर प्रदरहुड" की स्थापना हुई थी जिसके अतर्गत जन लिट्रेचर सोसाइटी" अग्रेजीमें जैन साहित्य प्रचारके लिये स्थापित की गई थी। श्री हर्बर्ट वैरन सा. इसके सेक्रेट्री ये । श्री अलेक्जेंडर गार्डन और उनकी पत्नी, श्री लुई डी० सेंटर आदि अग्रेज जैन धर्मके पक्के अनुयायी हये थे। सोसाइटी द्वारा अग्रेजीम दो-तीन पुस्तकें भी प्रकाशित की गई थी । किन्तु स्व० वैरिस्टर चम्पतराय जीने युरोपमें जैन धर्म प्रचारका जो कार्य किया वह सर्वो. परि हैं । २४ अप्रेल १९२६ को लदनमें पहले-पहले महावीर जयन्ती का उत्सव बैरिस्टर सा० के उद्योगसे मनाया गया । इसीवर्ष सर्व प्रथम उन्होंने अरमनी, फ्रान्स, इटली आदि देशोंके प्रमुख नगरोंमें. जाकर जैनधर्म और विश्वशाति पर भाषण दिये थे। सन् १९२८ में महावीर निवाणोत्सब भी लदनमें उनके प्रयलसे मनाया गया था। सन् १९३० में वह फिर लदन गये और पाश्चात्य देशोंमें धर्मप्रचार करते रहे थे । सन् १९३३ में शिकागों में विश्वधर्मसम्मेलन हुआ था। वैरिस्टर सा के उसमें पांच भाषण हुये, जिनके कारण अमेरिकावासी उनकी ओर आकृष्ट हुये थे। मेबुद्ध (Maywood) में स्कूल ऑफ दी जैन डॉकटाइन' भी स्थापित हुआ था । अप्रेल १९३० में लंदनमें श्री हर्ट तैरनके परामर्श से बैरिस्टर माने 'बषभ जैन लेन्डिंग लायब्रेरी की स्थापना की थी, (जो अभी भी चल रही है)। उनके उपदेशको मानकर बहुत-से अंग्रेज जैननियमोंका पालन करते हैं। , इस वर्णनसे स्पष्ट है कि हिन्दू (वैदिक) धर्मकी तरह जैनधर्म भारतमें ही सकुचित नहीं रहा। उसने सबही जातियों और सबही स्थितियों के मानवों को धर्म सिद्धान्त जाननेका अवसर दिया है। (मूल जर्मन भाषाके गुजराती अनुवादसे सकलित) अहिंसा और तपका अभ्यास करते थे। यहातक कि जैनोंकी तरह द्विदल (= दाली ) कामी निषेध करते थेदहीमें मिला कर द्विदल जैनी नहीं खाते, क्योंकि उसमें सम्मूर्छन जीव उत्पन्न हो जाते हैं। इस प्रकार यूनानमेंभी जैनधर्मका प्रमान सष्ट है। (असहमत संगम पुस्तक देखो) यूनानके अथेन्स (Athens ) नगरमें एक समय श्रमणाचार्यकी निषधिका थी। यह जैन साधु बैराज (भारत) से यूनान आवे.थे। (इंडि• हि. का०, २ पृ० २९३) मो, एम. एस. रामस्वामी ऍगरने कहा था कि बौद्ध भिक्षु व जैन श्रमण यूनान, रूम व नाखे महुचे थे। (हिन्दू, २५ जुलाई १९१९) सम्प्रतिने ईरान-अरवअफगानिस्तानमें धर्म प्रचार कराया था। सालोनके सम्राट् पाडकामयने ई० पूर्व ३६५-३०७ में निरन्थ (जैन ) श्रमणों के लिये मंदिर व विहार बनवाये थे, जो २१ शासकोंके समयमै रहे। किन्तु सम्राट् बटगामिनी (३८-१० ई० पू० ) जैनोंसे कुद्ध हुये और उसे नष्ट कराया । (महावंश) चीनी त्रिपिटकममी जैनोंका उल्लेख है। (वीर, मा०४,५०१५) प्रो. सिषा लेधीने भावा-सुमासामें जैन धर्मका प्रभाव यज किया था। (विशाल भारत, १३४) साRTNE क समय जैन धर्मने महिला संस्कृतिका प्रचार विसमें किया था। -का०प्र०]
SR No.010530
Book TitleMahavira Smruti Granth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain, Others
PublisherMahavir Jain Society Agra
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size9 MB
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