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________________ १०६ भ० महावीर स्मृति-ग्रंथ। जाता है । अन्य प्रकारोंका दिना निषेध किये वस्तुको सद् (विद्यमान) बतलाना आशिक ज्ञान सवलित 'नय' कहलावेगा । विद्यमान वस्तु के विषयों 'सम्भवतः यह है । (स्यात् सत्) -- यही ज्ञान वस्तुतः सच्चा है, क्योंकि इसमें वस्तुके ज्ञात और अज्ञात समस्त धोका एकत्र सकलन हो जाता है। यही है प्रमाण । 'त्यादवाद' ही सच्चा प्रमाण है । स्याद्वादके माननेके कारण जैन धर्मकी दृष्टि अतिशय व्यापक तया समन्वयी प्रतीव होती है। उदाहरण के लिये उसकी आत्माविषयक कल्पनाको हम ले सकते हैं । आमाको कुछ दार्शनिक 'सर्वगत' मानते हैं, कुछ 'जड' मानते हैं; बौद्ध लोग शून्य मानते हैं और जैन लोग उसे देहप्रमाण मानते हैं। यह भिन्न भिन्न दृष्टिया व्यवहारनय-का फल है, परन्तु यदि 'निश्वयनय से विचार किया जाय, तो आत्मा यह चारो स्वय है। इस विषयमैं जोगीन्दुका कथन भ० महावीरके 'स्याद्वाद' दृष्टिकाही प्रतीक है - सपा जोइय सम्वास अप्पा जड वि वियाणि । अप्पा देह पमाणु मुणि अप्पा सुण्ड वियाणि ॥ परमात्मप्रकाश ११५१. आगेके अनेक दोहोंके द्वारा लेखफने इस दोहाके समन्वयवादका प्रमाणपुरःसर वर्णन किया है । यह समन्वय अन्यत्र मिलना नितान्त दुष्कर है। ___म० महावीरके उपदेशकी महत्ता इस कारण विशेष है कि वे उनके स्वानुमवपर अवलम्बित हैं। विद्वान तथा यतिके उपदेशका अन्तर तो यही कारण होता है। विद्वानका ज्ञान पुस्तकके आधार पर ही अवलम्बित रहता है। वह उसकी सत्यताकी परीक्षा खानुभूतिकी कसौटी पर कभी नहीं करता । 'ययावत तथा निवेदितम्'-बस उसका यही महामन्त्र होता है, परन्तु यति गा धाधुसन्तका उपदेश अपने निज अनुभवके ऊपरही अवलम्बित रहता है। इसीलिए उसमें प्रभावोत्पादनकी महती शक्ति हैं। परमार्थका मुख्य प्रमाण है-स्वानुभूति-स्वानुमूत्येक मानाय नमः शान्तायतेजसे । अपनी अनुभूतिही परमार्थकी सत्ताके लिए मुख्य प्रमाण है। महावीरकी शिक्षायें स्वानुभूतिकी आधारशिलापर प्रतिष्टित हे इसीलिए उनमें इतना जोर दिखाई पडता है-इवनी प्रमावशालिता दीख पडती है। एकदो उदाहरण देखिये कुसमो जह ओस बिंदुए कोव चिहइ लंघमागए। एवं मानुसाण जीवि समयं गोयम ! मा पमायए। आशय है कि हे गोतम, जैसे घासके अग्रमागपर तरल ओसकीवूद थोडेही समय तक टिक + 'दष्टि विशेषकी अपेक्षा से' स्यात् शब्दका अर्थ लेना उचित है । स्याद्वाद सिद्धांत किसी वस्तु. विश्चनाको 'यदही है' कह कर एकान्त पक्षने जिज्ञासुको नहीं डास्ता; बल्कि यह स्पष्ट रूपसे-'संभवत.' नही, वस्तुविवेचनाके रूप विशेषको 'यहमी है' निर्दिष्ट करके पूर्ण सत्य के दर्शन कराता है। -का.प्र.
SR No.010530
Book TitleMahavira Smruti Granth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain, Others
PublisherMahavir Jain Society Agra
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size9 MB
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