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________________ श्री बलदेव उपाध्याय। १०५ शिव होता है । जोगीन्दुका कथन है कि जैसे आकाशमें एकही उदित नक्षत्र जगत्को प्रकाशित करता है, वैसेही जिसके केवलज्ञानमें जगत् प्रतिबिम्बित होता है वही अनादि परमात्मा होता है - गयणि अणति वि एक एड गेहड भुअणु विहाइ । मुझह जसु पए विम्बियउ सो परमप्पु अणाइ । परमारमप्रकाश ११३८ जैनियों के अनुसार परमारमा जगत्के कर्तृत्व आदि गुणोंसे विशिष्ट आत्मासे पृथक नहीं होता (जैसा न्याय वैशेषिक मानता है ) प्रत्युत अन्तरात्मा ही कतिपय विशिष्ट साधनों के द्वारा स्वय परमात्मा बन जाता है। इन्हीं साधनों के प्रतिपादनमें म० महावीरको शिक्षाका महत्व है। ससारमें दुःखकी सजा इतनी बलवती है तथा पद पदपर हमे आक्रान्त कर रही है कि उसकी छुटकारेके लिए उद्योग करना प्रत्येक विवेकशील प्राणीका कर्तव्य हो जाता है। जैर धर्मके अनुसार इसका केवलमात्र उपाय है रत्नत्रयका सम्पादनसम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, तथा सम्यक चरित्र । जैन धर्मके अनुसार दर्शन तथा ज्ञानका अन्तर खूब स्पष्ट रूपसे दिखलाया गया है। दर्शन है सच्ची श्रद्धा । जीवोंके आध्यात्मिक विकासमें अद्धाकी भूपसी प्रतिष्टा है । गीताका महत्वपूर्ण वचन है-यो यच्छ्रच्छः स एव सः। जो मनुष्य जिस वस्तुकी श्रद्धा रखता है वह वही बन जाता है। श्रद्धाके आधार परही ज्ञान प्रतिटित होता है और इस ज्ञानका उपयोग है-चरित्रमें । सदाचारके द्वारा साधक भविष्यमें होनेवाले नदीन काँको रोक लेता है और इसीके अगभूत तपस्या के बल पर वह करोडों जन्मोंके पापोको क्षीण कर देता है। तपके द्वारा पूर्व सचित कर्मोका होता है शोपण और चरित्रो द्वारा नवीन कर्मोका होता है प्रतिरोध । इस प्रकार जीव कर्मप्रपञ्चसे बच कर आत्मकल्याणकी ऊंची चोटीपर पहुचनेमें समर्थ होता है | भगवान महावीरका स्वयं उपदेश है-- नाणेण जाणई भावे, दसणेण य सरहे । चरिचण निगण्हए, तवेण परिसुन्झइ ॥ समन्वय धुद्धि जैन धर्ममें विशेष रूपसे दृष्टिगोचर होती है। वह किसीभी धर्मसे न तो विरोध रखता है और न किसी दार्शनिक दृष्टिका अपलाप करता है। वह 'स्याद्वाद 'के महनीय सिद्धान्तके द्वारा समप्र सिद्धान्तोंमें सामञ्जस्यका पक्षपाती है। जैनमतानुसार प्रत्येक वस्तु अनन्त धर्मात्मक होता है - अनन्त धर्मात्मकमेव तत्वम् । कोईभी वस्तु अनन्त धर्मोका समुच्चय होती है। मानव बुद्धि केपल एकदो धोको जान कर उसीकी सत्ता पर आग्रह दिसलाती है, परन्तु वस्तुस्थिविपर विचार करनेसे प्रत्येक शानका सापेक्ष होनाही न्याय सगत प्रतीत हो रहा है । साधारणतया शान तीन प्रकारके होते हैं - (१) दुर्गय, (२) नय, (३) ममाण | यदि विद्यमान होनेवाली किसी वस्तुको इम विद्यमानही (देव) गतलायें, तो उसको अन्य प्रकारोंके निषेध करनेके कारण यह ज्ञान दुर्णय (दुष्ट नय )के नामसे पुकारा
SR No.010530
Book TitleMahavira Smruti Granth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain, Others
PublisherMahavir Jain Society Agra
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size9 MB
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