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________________ [५८] अश स्फुरायमान ' हो जाता है। गोशाला इतनी: सिद्धिपर ही महावीर स्वामीकी बराबरी करनेका विचार करने लगा। महावीर भविष्यमें सर्वज्ञताको प्राप्त करके तीर्थकर होनेवाले थे यह बात वह अच्छी तरह जानता था। खुदके अंदर. सर्वज्ञताकी कमी थी इस कमीको वह पूरा करनेके लिये उसने पार्श्वनाथ प्रभुके चारित्र भ्रष्ट कितनेक शिष्योंके पाससे अष्टांग निमित्त ज्ञान प्राप्त करलिया और इतनी ही योग्यतासे वह अपने आपको जिनेश्वर कहलाने लगा। '. इस तरफ प्रमु विहार करते२ पेढाला गावके नजदीक आयें वहॉपर प्रमु एक शिलातल पर नानु तक मुजाको लम्बी कर चित्तकी स्थिरतापूर्वक अनिमेषपनमें एक रुक्ष द्रव्यपर दृष्टिको जमाकर का. योत्सर्ग भावमें समाधिस्थ खड़े हो गये। उस समय प्रभुकी परम चारित्रमय अवस्था सौधर्म्य देवलोकके इन्द्रने अवधिज्ञानसे देखी और अपना हृदयगत विशुद्ध भक्तिभाव देवोंकी सभामें जाहिर किया। प्रमु तो परम अन्याध स्थितिको प्राप्त करनेके क्रम पर.थे । इन्द्र इस बातको अच्छीतरहसे जानता था कि प्रमुकी स्थिति हमारे पदसे अनन्त गुणा श्रेष्ठ थी और महावीर प्रमुके उत्तरकालीनभविष्यमें प्राप्त होनेवाले सुखकी कक्षा और प्रमाण और प्रमाणऐन्द्र सुखका दर्जा ही प्रमागसे अनंत गुणा उच्च था ।जो सुख परिणाम अन्तमें दुःखमय है और सुखकी "स्मृतिमें दुःख ही हैं वह सुख वास्तवमें सुख नहीं है। इन्द्र इस बातको अच्छीतरहसे जानताथा अतएव उसको अपनी स्थितिमें सुखमयता मालूम होती थी। अब वह उसे नहीं मालूम होने लगी। और प्रमु जिस राहमें थे वही. सचे सुखका मार्ग उसको प्रतीत हुआ। उसका प्रत्येक रोम प्रमुकें प्रति
SR No.010528
Book TitleMahavira Jivan Vistar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachand Dosi
PublisherHindi Vijay Granthmala Sirohi
Publication Year1918
Total Pages117
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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