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________________ ( ३२ ) "साधने की ओर होना चाहिये। अपना स्वहित साधे वाद अपने ज्वलंत उदाहरणसे वह जितना दूसरोंका हित साध सकता है दही हित अपनी अपूर्ण अवस्थामें किसी तरहके उद्योग अथवा सत्तासे कोई नहीं साध सकता है । सम्पूर्ण मनुष्य थोडेसे प्रयत्नसे हजारों मनुष्य के मन पर स्थायी असर कर सकता है । परन्तु अपूर्ण मनुष्य में मूर्खाईसे भरा हुआ पर हित साधनेका आवेश मात्र ही होता है इधर उधरके मनुष्योंकी थोड़ी बहुत प्रशंसाके सिवाय कुछ फल नहीं प्रकट करा सकता है। बाहिरी चाहे कितना ही आडम्बर क्यों न हो तो भी जबतक उपदेशक अन्तःकरणके विचार न्यूनता और अपूर्णतासे भरे होते हैं तबतक वह किसीका सम्पूर्ण हित नहीं साध सकता है। खुदके हृदय में जितने अंश में ज्ञानका दीपक प्रकाशित, होता है उतने ही अंशमें वह दूसरों पर असर कर सकता है | अपना कुछ हित साधे बिना उपदेश द्वारा दूसरोंके कन्याण करनेकी मुर्खाई पर अपना उदाहरणरूप अंकुशको रखनेके लिये ही प्रभुने मौन सेवन किया था । परहित साधनेका आवेश बहुत प्रशंसाकी लालच में उद्भवित होता है और इससे इस उपदेश प्रवृत्तिको जो निर्दोष और परोपकार बुद्धिमेंसे उद्भवित मानते हैं चे ठगे जाते हैं । स्वहितके कल्याणके भोगमें अथवा खुदके अन्तः करणका अंधेरा कायम रखनेके लिये जो लोग संसारको प्रकाश जब दस्त लाने में प्रयत्नशील रहते हैं । वे हितके बजाय उलटा अपने दृष्टान्त संसारका अहित करते हैं । इससे उलटा- जिनका लक्ष स्वहित साधनेकी ओर है और जो साधक अवस्थामें परहित साधने के अविचार भरे आवेशमें नहीं पड़ते हैं वे आखिर जगतका सम्पूर्ण+
SR No.010528
Book TitleMahavira Jivan Vistar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachand Dosi
PublisherHindi Vijay Granthmala Sirohi
Publication Year1918
Total Pages117
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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