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________________ ७५ शुद्ध निजातम सम्यक रत्नत्रय निधि को नहि पहिचाना ॥ अब निर्मल रत्नत्रय जल लेकर, श्री देव शास्त्रगुरु को ध्याऊं । विद्यमान श्री बीस तीर्थकर, सिद्ध प्रभु के गुण गाऊं ॥ ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्र गुरु समूह श्री विद्यमान बीस तीर्थकर समूह, श्री सिद्ध परमेष्ठिभ्यों जलम् नि०स्वाहा । भव आताप मिटावन की निज में ही क्षमता समता है । अनजाने अब तक मैंने, पर मैं की झूठी ममता है ॥ चन्दन सम शीतलता पाने, श्री देवशास्त्र गुरु को ध्याऊं । विद्यमान श्री बीस तीर्थकर, सिद्ध प्रभु के गुण गाऊं ॥ चन्दम् || अक्षय पद बिन फिरा जगत की, लख चौरासी योनि मैं अप्ट कर्म के नाश करन को, अक्षत तुम ढिग लाया मैं ।। अक्षय निधि निज की पाने को श्री देव शास्त्र गुरु को ध्याऊँ ॥ विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर, सिद्ध प्रभु के गुण गाऊं ॥ अक्षतं || पुष्प सुगंधी से आतम ने शील स्वभाव नसाया है । मनमथ वाणों से विंध करके चहुंगति दुःख उपजाया है ।। स्थिरता निज पाने को, श्री देव शास्त्र गुरु को ध्याऊं । विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर, सिद्ध प्रभु के गुण गाऊं ॥ पुष्पम् ॥ पद् रस मिश्रित भोजन से, ये भूख न मेरी शांत हुई । आनम रस अनुपम चखने से, इन्द्रिय मन इच्छा शमन हुई । सर्वथा भूख के मेटन को, श्री देव शास्त्र गुरु को ध्याऊं । विद्यमान श्री बीस तीर्थकर, सिद्ध प्रभु के गुण गाऊं ॥ नैवेद्यम् ।। जड़ दीप विनश्वर को अब तक समझा था मैंने उजियारा | निज गुण दर्शायक ज्ञान दीप से, मिटा मोह का अंधियारा ॥ ये दीप समर्पित करके मैं, श्री देवशास्त्र गुरु को ध्याऊं ।
SR No.010526
Book TitleJinendra Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhash Jain
PublisherRaghuveersinh Jain Dharmarth Trust New Delhi
Publication Year1981
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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