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________________ ७४ भव-जल-तारनतरनजिहाजा॥६॥ सम्यक रत्न-चयनिधि दानी, लोकालोक प्रकाशक ज्ञानी । शत इन्द्रनिकरि वंदित सौहैं, सुर नर पशु सबके मन मोहैं ॥७॥ दोहा तुमको पूर्ज वंदना कर, धन्य नर सोय । 'द्यानत' सरधा मन धरै, सो भी धरमी होय ।।८।। ॐ ह्रीं विद्यमानविंशतितीर्थङ्करेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा। देव शास्त्र गुरु-विद्यमान बीस तीर्थंकर और सिद्ध पूजा [सच्चिदानन्द कृत] दोहा देव शास्त्र गुरु नमन करि, वीस तीर्थकर ध्याय । सिद्ध शुद्ध राजत मदा, नमूं चित्त हुलसाय ।। ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरु समूह श्री विद्यमान विंशति तीर्थकर श्री सिद्ध समूह अनावतरअवतर, अत्र तिष्ठ ठः ठः, अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम् । अनादिकाल से जग में स्वामिन् जल से शुचिता को माना।
SR No.010526
Book TitleJinendra Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhash Jain
PublisherRaghuveersinh Jain Dharmarth Trust New Delhi
Publication Year1981
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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