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अरहंतश्रुत-सिद्धांत गुरु-निरग्रंथ नित पूजा रचूं ॥
दोहा वसुविधि अर्घ संजोयक अति उछाह मन कीन । जासों पूजों परमपद देव शास्त्र गुरु तीन ॥६॥
ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्योऽनर्घपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपा० ।
जयमाला
दोहा
देव शास्त्र गुरु रतन शुभ रतन तीन करतार । भिन्न-भिन्न कहुँ आरती अल्प सुगुणविस्तार ॥१॥
पहरी छन्द चउ कर्मसु वेसठ प्रकृतिनाशि, .
जीते अष्टादश दोषराशि । जे परम सुगुण हैं अनंत धीर,
कहवत के छयालिस गुणगंभीर ।। शुभ समवसरणशोभा अपार,
शत इंद्र नमत कर सीस धार । देवाधिदेव अरहंत देव,
बंदों मन वच तन करि ससेव ॥