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________________ ५७ ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपा०। जो कर्म-ईंधन दहन अग्निसमूह सम उद्धत लस । वर धूप तासु सुगंधिताकरि सकल परिमलता हंस ।। इह भांति धूप चढ़ाय नित भव-ज्वलनमाहिं नहीं पचूं । अरहंत श्रुत-सिद्धान्त गुरु-निरग्रंथ नित पूजा रचूं ॥ दोहा अग्निमाहिं परिमल दहन चंदनादि गुणलीन । जासों पूजों परमपद देव शास्त्र गुरु तीन ॥७॥ ____ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्योऽष्टकर्मविध्वंसनाय धूपं निवपाल । लोचन सुरसना घ्रान उर उत्साह के करतार हैं। मोप न उपमा जाय वरणी सकल फलगुणसार हैं। सो फल चढ़ावत अर्थपूरन परम अमृतरस मचूं । अरहंत श्रुत-सिद्धांत गुरु-निरग्रंथ नित पूजा रचूं ॥ दोहा जे प्रधान फल फलविष पंचकरण-रस-लीन । जासों पूजों परमपद देव शास्त्र गुरु तीन ॥८॥ ___ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यो मोक्षफलप्राप्नये फलं निर्वपा० । जल परम उज्ज्वल गंध अक्षत पुष्प चरु दीपक धरू । वर धूप निर्मल फल विविध बहु जनमके पातक हरू । इह भांति अर्घ चढ़ाय नित भवि करतशिव-पंकति मचूं।
SR No.010526
Book TitleJinendra Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhash Jain
PublisherRaghuveersinh Jain Dharmarth Trust New Delhi
Publication Year1981
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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