SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 49
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४५ निर्मल भाव । कछू उपाव ||६|| तिहुं जगकी पीड़ाहरन, भवदधि शोषणहार । ज्ञायक हो तुम विश्व के, शिवसुख के करतार ॥ ३॥ हरता अधअंधियार के, करता धर्मप्रकाश । थिरतापद दातार हो, धरता निजगुण रास ||४|| धर्मामृत उर जलधिसों, ज्ञानभानु तुम रूप । तुमरे चरणसरोजकों, नावत तिहुंजग भूप ॥५॥ मैं बंदों जिनदेव को कर अति कर्मबंध के छेदने, और न भविजनकों भव-कूपतें, तुमही काढनहार | दीनदयाल अनाथपति, आतम-गुण-भडार ॥७॥ चिदानंद निर्मल कियो, धोय कर्म-रज मैल । सरल करो या जगत में, भविजन को शिव-गैल ||८|| तुम पदपकज पूजतें, विघ्न रोग टर जाय । शत्रु मित्रता को धरें, विप निरविषता थाय ॥ ६ ॥ चक्री - खगधर - इन्द्र पद, मिलें आपतें आप । अनुक्रमकर शिवपद लहैं, नेमसकल हनि पाप ॥ १० ॥ तुम बिन मैं व्याकुल भयो, जैसे जलबिन मीन । जन्मजरा मेरी हरो, करो मोहि स्वाधीन ॥११॥ पतित बहुत पावन किये, गिनती कौन करेव । अंजन से तारे कुधी जय जय जय जिनदेव ||१२||
SR No.010526
Book TitleJinendra Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhash Jain
PublisherRaghuveersinh Jain Dharmarth Trust New Delhi
Publication Year1981
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy