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________________ वर क्षीरसागर आदि जल मणिकुंभभरि भक्ति करी ॥८॥ विधनसघनवनदाहन-दहन प्रचण्ड हो । मोह महातमदलन प्रवल मारतण्ड हो। ब्रह्मा विष्णु महेश, आदि संज्ञा करो। जगविजयी जमराज नाश ताको करो॥ आनन्दकारण दुखनिवारण, परममंगलमय सही । मो सो पतित नहिं और तुममो, पतिततार सुन्यौ नहीं। चिंतामणी पारम कलपनरु, एकभाव सुखकार हो । तुम भक्तिनौका जे चढ़ ते, भये भवदधि पार ही॥६॥ दोहा तुम भवदधितं नरि गये, भये निकल अविकार । तारतम्य इम भक्ति को, हमें उतारो पार ।। पूरा पाठ पढ़कर निर्मल वस्त्र से प्रतिमाजी का मार्जन करें। और पीछे चरणोदक ग्रहण करें। पश्चात् ६ वार णमोकार मन्त्र पढकर नमस्कार करें। विनय पाठ इह विधि ठाड़ो होय के, प्रथम पढ़े जो पाठ । धन्य जिनेश्वर देव तुम, नाशो कर्मजु आठ ॥१॥ अनन्त चतुष्टय के धनी, तुम ही हो सिरताज । मुक्तिवधू के कथ तुम, तीन भुवन के राज ॥२॥
SR No.010526
Book TitleJinendra Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhash Jain
PublisherRaghuveersinh Jain Dharmarth Trust New Delhi
Publication Year1981
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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