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________________ ११९ धरी शिविका निज-कंध मनोग । करो वन मांहिं निवास जिनंद, धरे व्रत चारित आनंद-कंद ॥ गहे तहाँ अष्टम के उपवास, गये धनदत्ततर्ने जु अवास । दियो पयदान महा सुखकार, भई पण वृष्टि तहाँ तिह वार ।। गये फिर काननमांहिं दयाल, धरो तुम योग सबै अघ टाल । तब वह धूम सुकेत अयान, भयो कमठाचर को सुर आन । कर नभ गौन लखे तुम धीर, जू पूरव वर विचार गहीर । करो उपसर्ग भयानक घोर, चली बहु तीक्ष्ण पवन झकोर ॥ रहो दशहूँ दिश में तम छाय, लगी बहु अग्नि लखी नहिं जाय । सुरुंडन के बिन मुण्ड दिखाय, पड़े जल मूसल धार अथाय । तब पद्मावति कंत धनंद, नये युग आय तहां जिनचंद ।
SR No.010526
Book TitleJinendra Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhash Jain
PublisherRaghuveersinh Jain Dharmarth Trust New Delhi
Publication Year1981
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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