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________________ १०२ गुणवंत अनंत अबाध भये । हरि आय जजें तित मोद धरें, हम पूजत ही सब पाप हरें ॥ ॐ ह्रीं फाल्गुनशुक्लसप्तम्यां मोक्षमंगलमण्डिताय श्रीचन्द्र प्रभजिनेन्द्राय अर्घ निवंपामीति स्वाहा। जयमाला दोहा हे मृगांक-अंकितचरण, तुम गुण अगम अपार । गणधरसे नहि पार लहि, तौ को वरनत सार ॥१॥ पं तुम भगति हिये मम, प्रेरै अति उमगाय । तात गाउँ सुगुण तुम, तुम ही होउ सहाय ॥२॥ छन्द पद्धरी (१६ मात्रा) जयचंद्र जिनेंद्र दया-निधान, भव • कानन-हानन-दव-प्रमान । जय गरभ-जनम-मंगल दिनन्द, भवि जीव-विकाशन शर्म-कंद ॥ दश लक्ष पूर्वकी आयु पाय, मन-वांछित सुख भोगे जिनाय ।
SR No.010526
Book TitleJinendra Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhash Jain
PublisherRaghuveersinh Jain Dharmarth Trust New Delhi
Publication Year1981
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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