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________________ भारत वर्ष में प्राचीन काल में स्त्रियां काफी शिक्षित होती थी। घर के बाहर भी उन्हें बहुत कुछ स्वतंत्रता प्राप्त थी। जैन समाज में भी उस समय स्त्रियों में काफी जागृति थी। सती ब्राह्मी ने शिक्षा प्रारम्भ करके महत्त्वपूर्ण कार्य किया था। ब्राह्मी लिपि भी उन्हीं के नाम से चली। सोलह सतियों में से प्रत्येक ६४ कलाओं में निपुण होने के साथ-साथ बड़ी विदुषी थीं। साधारण पुस्तकीय ज्ञान के अलावा उन्होंने उत्कृष्ट संयम द्वारा विशिष्ट ज्ञान भी प्राप्त किया था। उनकी योग्यता के लिए क्या कहा जाय ? स्त्री-शिक्षा और स्त्री-स्वातन्त्र्य का अनुमान इतने से ही सहज में लगाया जा सकता है। विद्या की अधिष्ठात्री देवी भी सरस्वती ही मानी गई है। स्त्री जाति का पतन मुसलमानों के आगमन के साथ-साथ हो रहा था। धीरे-धीरे उन्हें पहिले जैसी स्वतंत्रता न रही, उनका कार्यक्षेत्र सीमित होता गया और अन्त में उनका पतन चरम सीमा तक पहुंच गया। उनकी शिक्षा के प्रश्न को समाप्त कर दिया गया। पाश्चात्य देशों में तो उसमें बहुत सुधार हो चुका है पर भारतवर्ष में अभी बहुत सुधार की आवश्यकता है। कहते हैं वर्तमान युग में स्त्रीशिक्षा की विशेष आवश्यकता का अनुभव सर्वप्रथम जापान के मि. नारू ने किया था। उस समय वहां की स्त्रियों की हालत बहुत खराब थी। उनमें जरा भी नैतिकता की भावना न थी। वे अत्यन्त पतित-अवस्था को पहुंच चुकी थी। मि. नारू ने अनुभव किया कि राष्ट्र के उत्थान के लिए स्त्रियों का सुशिक्षित और उन्नत होना नितान्त आवश्यक है। उन्होंने यह भी समझने का प्रयत्न किया कि स्त्रियों और पुरुषों की शिक्षा साधारण रूप से एक ही प्रकार की नहीं हो सकती, कुछ न कुछ भिन्नता कार्यक्षेत्र और व्यक्तित्व की दृष्टि से होनी ही चाहिए। स्त्रियों के लिए साधारण और पुस्तकीय शिक्षा का उद्देश्य मानसिक स्तर का उन्नत होना चाहिए। महिलाओं की प्रतिभा का सर्वतोमुखी विकास करना ही उनकी शिक्षा का उद्देश्य है। वह विकास शारीरिक, वौद्धिक और मानसिक तीनों प्रकार का होना चाहिए। शिक्षा का ध्येय ऐसा हो, जिससे वे जीवन में योग्यता-पूर्वक अपने कर्तव्य को पूर्ण कर सकें और स्वतन्त्रता से जीवन-पथ में अपना समुचित विकास कर अपनी प्रतिभा का सदुपयोग कर सकें। स्त्री शिक्षा की व्यवस्था करते हुए हमें यह न भूलना चाहिए कि उनका कार्य-क्षेत्र पुरुषों से कुछ भिन्न है। जीवन में उनका कर्तव्य सुगृहिणी और माता बनना है। हमारे समाज का बहुत प्राचीन काल से संगठन और श्रम-विभाजन भी ऐसा ही है, जिससे स्त्रियों के कर्तव्य पुरुषों से कुछ भिन्न हो गए हैं। यद्यपि दोनों में कोई मौलिक । भेद नहीं है पर कौटुम्बिक जीवन की सरलता के लिए यह भेद किया गया। सुगृहिणी और माता बनना कोई ऐसी - सरल वस्तु नहीं, जैसी आजकल समझी जाती है। माताओं के क्या-क्या गुण और कर्तव्य होने चाहिए, इस तरफ कोई दृष्टि नहीं डालता । उत्तम चरित्र और कार्य-सम्पादन की योग्यता होना उनमें सर्वप्रथम आवश्यक है। परन्तु इतने में ही उनके कर्त्तव्य की इतिश्री नहीं हो जाती। यह कदापि नहीं भूलना चाहिए कि स्त्री, समाज और राष्ट्र की अभिन्न अंग है। उनके उद्धार का बहुत कुछ उत्तरदायित्व इन्हीं पर है। वैसे सफल और बुद्धिमति माता बनकर ही वे राष्ट्र की बहुत कुछ भलाई कर सकती हैं। पर वे पुरुषों के क्षेत्रों में भी, जहाँ उनकी प्रतिभा और रुचि हो, अपनी योग्यता द्वारा सफल कार्यकर्ती और नेत्री हो सकती हैं, क्योंकि यह आवश्यक नहीं कि जो कार्य पुरुषों द्वारा सम्पादित हों, वे स्त्रियों द्वारा पूर्ण हो ही नहीं सकते। ऐसा न कभी हुआ है और न होगा। अगर उन्हें उचित शिक्षा और उचित स्वतन्त्रता दी जाय तो वे अपनी योग्यता का उपयोग कर समाज की काफी भलाई कर सकती हैं। अतएव सर्वप्रथम स्त्रियों को मानव जाति के नाते शिक्षा दी जानी चाहिए, फिर स्त्रीत्व के नाते, जिससे कि वे एक सफल गृहिणी और सुशिक्षिता तथा उपयुक्त माता बन सकें। तीसरे, उन्हें राष्ट्र के एक अभिन्न अंग हान
SR No.010525
Book TitleJawahar Vidyapith Bhinasar Swarna Jayanti Smarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranchand Nahta, Uday Nagori, Jankinarayan Shrimali
PublisherSwarna Jayanti Samaroha Samiti Bhinasar
Publication Year1994
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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