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________________ आओ आत्मावलोकन करें कुसुम जैन __ आज सर्वत्र मूल्यहीनता व्याप्त होती जा रही है और उसके कारण पनप रही है अमानवीयता । मनुष्यता का संकट निरन्तर गहराता जा रहा है। इन सवका मूल कारण और कुछ नहीं मात्र यह है कि मनुष्य अपने जीवन के उन्हीं मूल आदर्शों से बहुत तेजी से विमुख होता जा रहा है, जो सदा से जीवन को मार्गदर्शन देते रहे और उसे संचालित करते रहे हैं। 'मुंह में राम, बगल में छुरी' वाली वात अव केवल कहावत नहीं रही, आज के मनुष्य की पहचान बनती जा रही है। आज अनेकों असामाजिक तत्त्वों की पैठ सामाजिक जीवन में बढ़ती जा रही है। आज हम देखते हैं कि हमारा धर्म व आध्यात्मिकता केवल सैद्धान्तिक चर्चाओं, क्रियाकांडों व प्रदर्शनों में ही सिमट गया है। संयमी व नैतिक जीवन के रूप में इसकी अभिव्यक्ति नहीं है और इस भेड़चाल में हम अपने विवेक को निरन्तर पंगु बनाते चले जा रहे हैं। ऐसे परिवेश में आचार्य श्री जवाहरलालजी महाराज साहव की याद आ जाना स्वाभाविक है। मन कह उठता है—काश! आज आचार्यश्री हमारे वीच होते। तभी उत्तर मिलता है अरे भाई! क्या सोच रहा है ? आचार्यश्री तो सदैव हमारे वीच हैं और रहेंगे। जब तक उनका साहित्य हमें उपलब्ध है, वे सदा हमारे बीच रहेंगे और सदा हमें अन्धकार से प्रकाश की ओर जाने का सत्पथ दिखलाते रहेंगे। विचार आ रहा है क्या हम आचार्यश्री को सच्ची श्रद्धाञ्जली दे पाने में समर्थ हैं। क्या हम उसके अधिकारी भी हैं? हम विचार करें, एक क्षण रुककर आत्मचिन्तन करें कि हमारे धन, हमारे बल और हमार म का कितना भाग सदुपयोग में बीत रहा है। हमें पूरी ईमानदारी के साथ सोचना होगा? हम 'महावीर' के वश कहलाने के कितने अधिकारी हैं ? 'महावीर' ने अपनी अहिंसा, अपरिग्रह से विश्व को एक ऐसा स्वच्छ समाजवा दिया जिसको हम निश्छल भाव से एक अंश रूप भी स्वीकारें, अपने जीवन में उतारे तो हम सारे द्वन्द्वार छुटकारा पा सकते हैं। आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है कि हम सभी संगठित होकर एक मंच पर आये आ महावीर की वाणी के यथार्थ को समझें और उस पर चलने का सही अर्थों, सही सन्दर्भो में प्रयास कर। अ स्वार्थों की पूर्ति, थोथी प्रशंसा और वाहवाही लूटने की ललक को समाप्त कर महावीर के नाम पर टुकड़ा मक समाज को जोड़ने की प्रक्रिया को प्रारम्भ करें। आज हम अपने स्वार्थों की संकरी गलियों में महावीर का प. चक्रव्यह को भे उनके विराट व्यक्तित्व को बौना करने का गर्हित प्रयास कर रहे हैं। हमें स्वार्थ और संकीर्णता के चक्रव्यूह का कर बाहर आना ही होगा तभी हम आचार्यश्री को श्रद्धांजलि देने के पात्र हो सकेंगे। १३८
SR No.010525
Book TitleJawahar Vidyapith Bhinasar Swarna Jayanti Smarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranchand Nahta, Uday Nagori, Jankinarayan Shrimali
PublisherSwarna Jayanti Samaroha Samiti Bhinasar
Publication Year1994
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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