SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 173
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ राष्ट्रधर्म का स्वरूप : जवाहराचार्य की दृष्टि - प्रो. आर. एल. जैन विधि व्याख्याता आचार्य श्री जवाहरलाल जी ने अपने प्रवचनों में क्या कुछ नहीं दिया हमको ! उनका चिन्तन-मनन एक प्रखर मेधावी का चिन्तन था। अपने चिन्तन के माध्यम से उन्होंने राष्ट्रीयता को अच्छी तरह समझा-परखा ही नहीं वरन् आत्म-वोध से उसे परिष्कृत कर जन-बोधक भी बनाया। आचार्य श्री ने शास्त्रों का गहन अध्ययन कर जैन सूत्र स्थानांग (ठाणांग सूत्र) नामक तीसरे अंग सूत्र में निम्नलिखित दस धर्मों का विधान किया (१) ग्राम धर्म (२) नगर धर्म (३) राष्ट्रधर्म (४) व्रत धर्म (५) कुल धर्म (६) गणधर्म (७) संघ धर्म (८) सूत्र धर्म (६) चारित्र धर्म (१०) अस्तिकाय धर्म। अपने प्रवचनों में उन्होंने राष्ट्र की अवधारणा एवं राष्ट्रधर्म को अत्यंत ही रोचक, सरल तथा सुगम बनाकर जनसाधारण की समझ में आने वाली भाषा में अभिव्यक्त किया । उनके अनुसार ग्रामों एवं नगरों का समूह ही राष्ट्र कहलाता है। परन्तु क्या राष्ट्र का भी कोई धर्म होता है ? आचार्यश्री ने अपनी सरल भाषा में समझाया कि "जिस कार्य से राष्ट्र सुव्यवस्थित होता है, राष्ट्र की उन्नति एवं प्रगति होती है, मानव समाज अपने धर्म का ठाक-ठीक पालन करना सीखता है. राष्ट की सम्पत्ति का संरक्षण होता है, सख-शान्ति का प्रसार होता है. प्रजा सखी वनती है, राष्ट्र की प्रतिष्ठा बढ़ती है, और कोई अत्याचारी पर राष्ट्र, स्वराष्ट्र के किसी भाग पर अत्याचार नहीं कर सकता, वह कार्य राष्ट्र धर्म कहलाता है। अपने प्रवचनों में आचार्यश्री ने फरमाया कि राष्ट्र के प्रत्येक निवासी पर राष्ट्रधर्म के पालन करने का उत्तरदायित्व है, क्योंकि एक ही व्यक्ति के भले या बुरे कार्य से राष्ट्र विख्यात या कुख्यात (वदनाम) हो सकता है। आचार्यश्री ने इसके स्पष्टीकरण के लिए एक रोचक उदाहरण प्रस्तुत किया था। एक भारतीय सज्जन यूरोप की किसी बड़ी लायब्रेरी में ग्रन्थ अवलोकन करने गये। वहां पर सचित्र ग्रन्थ पढ़ते एक सुन्दर चित्र उन्हें नजर आया। वह चित्र उन्हें बहुत पसन्द आया। उन्होंने चोरी से उसे फाड़ लिया। संयोगवश लायबेरियन ने उन्हें देख लिया। उसने जांच पड़ताल की। उस भारतीय को पकड़ा और दण्ड दिया। इस भारतीय दुष्कृत्य का नतीजा सारे देश को भोगना पड़ा। उसके उपरांत उस लायब्रेरी में यह नियम बना दिया गया कि चित्ररा में कोई भी भारतीय बिना आज्ञा लिये प्रवेश न करे। इससे प्रभावित सैकड़ों भारतीय विद्यार्थी हा नक ज्ञानाभ्यास में बाधा पड़ी। तात्पर्य यह है कि राष्ट्रधर्म का पालन न करने से समूचे राष्ट्र को नीचा देखना पड़ा। आचार्यश्री जी ने राष्ट्रधर्म पर एक अन्य दृष्टांत भी दिया कि एक वार एक जहाज नदी के बीचो वीच जा रहा था मार्ग रहा था, मार्ग में एक मूर्ख मनुष्य किसी मनुष्य को उठाकर नदी में फेंकने को तैयार हो गया और द.. . . सतन धार वाले शस्त्र से जहाज में छेद करने का प्रयत्ल कर रहा था। इस स्थिति में पहले किसे रोका
SR No.010525
Book TitleJawahar Vidyapith Bhinasar Swarna Jayanti Smarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranchand Nahta, Uday Nagori, Jankinarayan Shrimali
PublisherSwarna Jayanti Samaroha Samiti Bhinasar
Publication Year1994
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy