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________________ प्रतिभा से प्रभावित होकर, आपको सम्मान रूप में 'जैन साहित्य चिंतामणि' व 'जैन न्याय दिवाकर' उपाधियाँ दी। किन्तु आपने उन्हें सधन्यवाद अस्वीकार कर दी । साधु-साध्वियों में उपाधि रूप व्याधि की गलत परम्परा न चल पड़े, इस दृष्टि से भी संभवतः आपने उक्त पदवियां स्वीकार न की । किन्तु आज की स्थिति बड़ी खेदप्रद है । सांसारिक उपाधियां एम.ए., पी.एच.डी., डाक्ट्रेट आदि की प्राप्ति हेतु साधु-साध्वीगण, स्वाध्याय, ध्यान, जप तप आदि छोड़ कालेज के छात्र-छात्राओं की तरह रात - दिन परिश्रम करते हैं, फिर प्राप्त उपाधि (डिगरी) को अपने नाम के साथ छपवाने में बड़ा गौरव मानते हैं । उपाधियां सार्वजनिक रूप से दी जाय इस हेतु बड़े-बड़े समारोह आयोजित किए जाते हैं। समाज और धर्म के अग्रणियों का यह रोग रुके, इस पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। - आप जैनों में विशेषकर साधु-साध्वियों का गृहस्थ पंडितों से शिक्षण सेवा-संबंधी प्रथा में सुधार साधु-साध्वियों में समय अनुसार रत्नत्रय की साधना में सहायक होने वाले बदलाव के भी पक्षधर थे । जैसे आपने जब देखा कि स्थानकवासी संप्रदायों में साधु-साध्वियों का गृहस्थ पंडितों से शिक्षण लेना निषिद्ध है और जिसके कारण श्रमणवर्ग में अपेक्षित विद्वता न होना शासन के लिए शोभास्प्रद नहीं है, तो आपने विरोध के बावजूद पंडितों से शिक्षण लेने का मार्ग खोला। किन्तु कालान्तर में जब आपने देखा कि साधु-साध्वीगण पढ़ाने हेतु पंडित रखने की प्रथा को अपनी प्रतिष्ठा समझने लगे हैं, बिना पंडित की व्यवस्था हुए, चातुर्मास भी करने से इन्कार करने लगे हैं, तथा सदैव पंडित साथ रहे, इस हेतु गृहस्थों से चंदा ले फण्ड बनाने लगे हैं, तो आपने पंडित प्रथा का दुरुपयोग होते अनुभव कर उस पर पुनः प्रतिबंध लागू किया और आवश्यक होने पर विशिष्ट कारणों में ही पंडितों से शिक्षण प्राप्त करने की छूट रखी । धर्मशास्त्रों के विशिष्ट विज्ञाता - आपको शास्त्रों का तलस्पर्शी ज्ञान था इसकी पुष्टि आपके द्वारा रचित साहित्य से व विशेषतः ‘संदर्भ मण्डन' ग्रंथ से होती है। यह ग्रंथ तेरापंथी आचार्य श्री जीतमलजी म.सा. द्वारा रचित 'भ्रम विध्वंसन' ग्रंथ जिसमें अहिंसा, दया, दान आदि सिद्धान्तों को, आगम के पाठों को इधर उधर कर भ्रमित रूप से प्रस्तुत किया है, उत्तर में सटीक व संयुक्ति, समाधान करते हुए लिखा गया है, जो एक अनुपम कृति है। आपके विशद आगम ज्ञान का 'सन्दर्भ मण्डल' ज्वलंत प्रमाण है। अल्पारंभ, महारंभ के प्रश्न का भी आपने बड़ा सुन्दर समाधान दिया है। आपने तर्क व शास्त्राधार से मीलबाद व मशीनरीबाद के आरम्भ को : महाआरंभ तथा हस्त उद्योग के आरंभ को अल्पारंभ स्पष्ट किया है। जो युक्तिसंगत समाधान है। आप जैनागमों के अतिरिक्त अन्य धर्मग्रंथों का भी क्रमशः स्वाध्याय चलाते थे, तथा सोमवार को मौन रखकर अन्य सन्तों से श्रीमद् भागवतगीता आदि ग्रंथों का क्रम से पाठ सुना करते थे। यदि भारत के सभी धर्माचार्य ऐसी उदारता अन्य धर्मों के रखे, तो धार्मिक संघर्ष बहुत कुछ कम हो जाय। अन्य धर्मों के ग्रंथों के स्वाध्याय से आपकी पकड़ अन्य धर्मों पर भी थी। इसी के परिणाम स्वरूप आप अन्य दर्शन के विद्वानों की शंकाओं का भी प्रमाण समाधान कर उन्हें संतुष्ट कर देते थे। उदाहरणार्थ लोकमान्य गंगाधर तिलक द्वारा रचित 'गीता रहस्य' का भी आपने स्वाध्याय किया था। एक बार तिलक आपके पास प्रवचन श्रवणार्थ पधारे तो आपने उन्हें बताया कि जैन धर्म को केवल निवृत्ति प्रधान बताकर लिखा गया कि जैन धर्म अनुसार गृहस्थ मोक्ष नहीं पा सकता, पूर्ण ज्ञानप्राप्ति हेतु मुनि होना अनिवार्य है, मुनियों के लिए भी निवृत्ति ही निवृत्ति है, विधेय रूप विधान बहुत कम या नहीं चत् है आदि। यह सब आपने जैन धर्म के मूल में रहे रहस्य को न जान पाने से लिखा है। पूज्यश्री ने उन्हें । स्पष्ट किया कि जैन धर्मे निवृत्ति प्रधान नहीं है, इसकी प्रवृत्ति अनासक्ति प्रधान है। जैन धर्म में बाह्य देश या आचार को खेत की बाढ़ की तरह सहायक माना है । किन्तु खेत के धान्य का स्थान वह नहीं ले सकता। १२३
SR No.010525
Book TitleJawahar Vidyapith Bhinasar Swarna Jayanti Smarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranchand Nahta, Uday Nagori, Jankinarayan Shrimali
PublisherSwarna Jayanti Samaroha Samiti Bhinasar
Publication Year1994
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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