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________________ के अमर साहित्य को जिस सुन्दर रूप से प्रकाशित कराया वह अपने आप में एक अनुपम मिसाल है। श्री शोभाचन्द्र जी भारिल्ल व प्रज्ञाचक्षु प्रोफेसर इन्द्रचन्द्रजी जैसे योग्य पंडितों के सहयोग से साहित्य प्रकाशन कराकर वाँठिया जी ने अपनी गहरी भक्ति व सेवा का परिचय समाज के समक्ष प्रस्तुत किया है। बाँठिया जी की साहित प्रकाशन की सेवा एक ऐसा अनोखा प्रसाद है जो कभी भी घटने वाला नहीं है। यह समाज के लिए सदा कायम रहने वाला अमृत है। सत्ता लिप्सा की भूख मानव सत्ता का दास है, अधिकार लिप्सा का गुलाम है। गृहस्थ जीवन में ही क्या साधु-जीवन में भी सत्ता मोह के महारोग से छुटकारा नहीं हो पाता है। ऊँचे से ऊँचे साधक भी सत्ता के प्रश्न पर पहुँच कर लड़खड़ा जाते हैं। जैन धर्म की एक के बाद एक होने वाली शाखा प्रशाखाओं के मूल में यही सत्ता लोलुपता ओर अधिकार लिप्सा रही है। आचार्य आदि पदवियों के लिये कितना कलह और कितनी विडम्बना होती है यह किसी से छिपा नहीं है। परन्तु श्री जवाहराचार्य इस अधिकार लिप्सा के गुलाम नहीं थे। वे सत्ता और अधिकार के मोह के महारोग से सर्वथा निर्लिप्त थे। गुरुदेव जितने महान् थे, उतने ही विनम्र थे। आप एक पुष्पित एवं फलित विशाल वृक्ष के समान ज्यों-ज्यों महान् यशस्वी हुए, प्रख्यात प्रतिष्ठित हुए, त्यों-त्यों अधिकाधिक विनम्र होते चले गये। अहंकार उनको छू भी नहीं गया था। बड़ों के प्रति श्रद्धा और छोटों के प्रति प्रेम-नेह कैसा होना चाहिए वह गुरुदेव के जीवन का अपनी अलग पहचान थी। दोहरे-तिहरे गुलामी वाले क्षेत्र में, अशिक्षित और पिछड़े समाज में आपने राष्ट्रप्रेम की जो वीन बजाई, जन जागरण के लिए जो नाद किया वह काबिले तारीफ है। आपने स्वतंत्रता आन्दोलन से जुड़न का लिए जिस रूप में समाज के सामने बातें रखी एवं उस आंदोलन में प्रविष्ट होने की प्रेरणा जिस तरह से दा वह पूरा तरह अपनी साधु मर्यादा के अनुरूप एवं विवेकपूर्ण थी। जैन श्रमणों के लिए यह बहुत बड़ी बात थी। समाज क लिए नयी क्रांति का संदेश था। उन्होंने राष्ट्र की अमूल्य सेवा की। बड़े-बड़े राष्ट्रीय नेताआ-गाधाना, ' ' सरदार पटेल आदि ने आपकी इस सेवा की खुले रूप से भूरि-भूरि प्रशंसा की। साठ-सत्तर वर्ष पहले का उनका चिन्तन, उनके प्रवचनों में कहीं बातें आज के इस विकासत पर युग में भी यदि बौद्धिक कसौटी पर कसकर उनका मल्यांकन करें तो वैज्ञानिक धरातल पर भा १ १७". उपयोगी और सही जान पड़ती हैं। उनके साहित्य को पढ़ने से आज भी वे बाते सारयुक्त जार १२. है। कलकत्ते की जैन सम्प्रदायों की सम्मिलित सभाओं में तेरापंथ के विद्वान संत श्रद्धेय श्री बुद्धमल जाप जो जैसे महान दार्शनिक मुनि आचार्यश्री जी के साहित्य की खले हृदय से प्रशंसा करते थे और यहां तक नहीं हिचकिचाते थे कि 'हमने आचार्य श्री जवाहरलाल जी के साहित्य व प्रवचनों से बहुत कुछ सीखा है।' गराज प्रवचनों से बहुत कुछ प्रेरणा ली और ग को कुछ न कुछ ज्ञान की प्रेरणा मिलती है। स आये। परोक्ष की मान्यताओं को लेकर कुछ तर्क पूज्य जवाहराचार्य जी के साहित्य में आज भी जनसाधारण को कुछ न कुछ ज्ञान क एक दिन वाँठिया हॉल में कॉलेज के कुछ विद्यार्थी गुरुदेव के पास आये। परोक्ष का मान्यता ही बातें कही। गुरुदेव ने उनकी बातों का रोमा, का बाती का ऐसा तर्कसंगत एवं सटीक जवाब दिया कि वे सब नतमस्तक होकर में प्रकट करते हुए गये । परोक्ष विषयों के प्रति उनकी अवधारणा सही और यथार्थ थी। इह ला . विषय में उनका चिन्तन वैज्ञानिक कसौटी पर आज भी खरा लगता नक कसौटी पर आज भी खरा लगता है। विश्व का स्वरूप क्या है ? आला ? जीव क्या है ? ईश्वर है अथवा नहीं है? ईश्वर का स्वरूप क्या है ? ईश्वर क ात र यथार्थ थी। इह लोक और परलोक क्या है ? ईश्वर के अस्तित्व का प्रमाण क्या है ?
SR No.010525
Book TitleJawahar Vidyapith Bhinasar Swarna Jayanti Smarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranchand Nahta, Uday Nagori, Jankinarayan Shrimali
PublisherSwarna Jayanti Samaroha Samiti Bhinasar
Publication Year1994
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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