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________________ • जव क्रिया मात्र का त्याग करना सम्भव न हो तो पहले उस क्रिया का त्याग करना उचित है, जिससे अधिक पाप होता है। • जो मनुष्य मैत्रीपूर्ण आचार और विवेकपूर्ण विचार द्वारा कषाय को जीतने का प्रयत्न करता है, वह कषाय को जीत सकता है और विश्व में शान्ति भी स्थापित कर सकता है। • जैसे अग्नि थोड़े ही समय में रुई के ढेर को भस्म कर देती है उसी प्रकार क्रोध भी आत्मा के समस्त शुभ गुणों को भरम कर देता है। • मिथ्याभिमान जीवन का अपकर्ष और धर्माभिमान उत्कर्ष करने वाला है। • जैसे बालक कपटरहित होकर माता-पिता के सामने सब वात खोलकर कह देता है, उसी प्रकार जो पुरुष अपना ___ समस्त व्यवहार निष्कपट होकर करता है, वही वास्तव में धर्म की आराधना कर सकता है। • कांक्षा या कामना एक ऐसा विकार है, जिसके संसर्ग से तपस्वियों की घोर तपस्या और धर्मात्माओं के कठोर से कठोर धर्मानुष्ठान भी कलंकित हो जाते हैं। • क्षमा के बिना वास्तव में कोई भी गुण नहीं टिक सकता। मोक्ष के मार्ग पर चलने में क्षमा पाथेय के समान तो है ही, संसार-व्यवहार में भी क्षमा की अत्यन्त आवश्यकता है। • हे दानी ! तू दान के बदले कीर्ति और प्रतिष्ठा खरीदने का विचार मतकर | अगर तेरे अन्तःकरण में ऐसा विचार उत्पन्न हुआ है तो समझ ले कि तेरा दान, दान नहीं है; व्यापार है। • बुरे कामों से निवृत्त होना और अच्छे कामों में प्रवृत्त होना शील है। __ • तप के अभाव में सदाचार भ्रष्ट हो जाता है। • क्रमिक रूप से अपनी भावना का विकास करते चलने से एक समय आपकी भावना प्राणी मात्र के प्रति आत्मीयता से परिपूर्ण बन जाएगी, आपका अहं जो अभी सीमित दायरे में गांठ की तरह सिमटा हुआ है, बिखर जायेगा और आपका व्यक्तित्व विराट रूप धारण कर लेगा। • समस्त प्राणियों में ईश्वर विराजमान है। प्राणियों की सेवा करना ईश्वर की सेवा है। जिस मनुष्य में इतना ज्ञान नहीं वह पशु से भी गया बीता है। • जो परोपकार करता है वह आत्मोपकार करता है। _ • सुव्रती अन्याय के खिलाफ अलख जगाता है। वह न स्वयं अन्याय करता है और न सामने होने वाले अन्याय को टुकुर-टुकुर देखता रहता है। = • जैसा आहार वैसा विचार, उच्चार और व्यवहार । - • धर्म, परिश्रम त्याग कर परिश्रम के फल को अनायास भोगने का उपदेश नहीं देता। धर्म अकर्मण्यता नहीं सिखाता | धर्म हरामखोरी का विरोध करता है और हक के खाने का विधान करता है। • वे गृहस्थ धन्य हैं जिनके हृदय में दया का वास रहता है और दुःखी को देखकर अनुकम्पा उत्पन्न होती है। ६४
SR No.010525
Book TitleJawahar Vidyapith Bhinasar Swarna Jayanti Smarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranchand Nahta, Uday Nagori, Jankinarayan Shrimali
PublisherSwarna Jayanti Samaroha Samiti Bhinasar
Publication Year1994
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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