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________________ ७१ जैसेकि-(उल्लणियाविहं) स्नानके पीछे जिस वस्त्रसे शरीर पूंछा जाता है। उस वस्त्रकी विधिका परिमाण (दंतणविह) दांतनोंका परिमाण, विधि शब्दका अर्थ नाना प्रकारका जानना चाहिये जैसेकि-दांतनोंके लिये कति ककी गति केवल स्वर्गकी होती है इस लिये मासाहार मनुष्य मात्रके लिये अभक्ष्य है, अतः साथ ही मांसके सहचारिणी मदिरापान भी अभक्ष्य है क्यों कि-सूत्रों में इसके अनेक दोष वर्णन किये गए हैं तथा पान तो करना दूर रही किन्तु इसके विक्रियका भी रस धनजमें निषेध किया गया है और नरकोंमें मासमक्षण और सुरापान करनेवालोकी गति इस प्रकारसे वर्णन की गई है-जैसे कि तुहं पियाई मंसाई, खडाई सोल्लगाणिय । खाविओमिस मंसाई, अग्गिवन्नाइजेगसो ॥ ७० ॥ तुहंपिया सुरासीहू, मेरओय महणिय । पाइओमिनलंतीओ, वसाओ रुहिराणिय ॥ ७१ ॥ उत्तराध्ययन सूत्र अ० १९ ॥ भावार्थ-मृगापुत्रजी अपने मातापिताजीको कहते हैं कि-हे माता और पिताजी ! मुझको नरकोंमें परमाधर्मियोंने इस प्रकारसे कहा कि-भो नारक ! तुमको मासभक्षण अतिप्रिय था, तू मांसके वह और सोले (पका कर) करके खाता था, अप हम तुमको तुम्हारा मांस अग्निके समान उष्ण करके भक्षण कराते हैं। उन्होंने फिर उसी प्रकार मेरे साथ वर्ताव किया जैसे कि-वे कहते थे, किन्तु एक पार नहीं अपितु अनेकश पार उन्होंने मेरे साथ वर्ताव किया ॥७॥ और फिर कहा कि-तुमको सुरा, सिंधु, मेरक, मधुनि इत्यादि भेदोकी मदिरा भी प्रिय थी इस लिये अव तुमको उसके स्थान पर चरपी और रुधिर उष्ण करके पीलाया जाता है अपितु उन्होंने • जैसे कहा था वैसे ही किया ॥७१॥ इन पाठोंसे सिद्ध हुभा कि-भक्ष्याभक्ष्य और पेयापेय आदिका विचार करके मदिरा तथा मासका परित्याग करना चाहिये क्योंकि-मास, और मदिरा यह दोनों पदार्थ श्रावकके लिये अभक्ष्य हैं अपितु, जो भक्ष्य पदार्थ है उनका प्रमाण अपर कहा गया है ॥
SR No.010524
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherLala Munshiram Jiledar
Publication Year1915
Total Pages101
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_aavashyak
File Size4 MB
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