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________________ का परित्याग करे क्योंकि सर्वथा हिंसाका त्याग तो गृहस्थोंसे हो नहीं सकता, इस लिये स्थूल शब्द ग्रहण किया गया है। फिर त्यागमें भी जो निरपराधि जीव है उनको न मारे, अपितु स्वअपराधियोंका त्याग नहीं है। उक्त व्रतमें न्यायधर्म वा न्यायमार्ग भली प्रकारसे दिखलाया गया है। जो निरपराधियोंकी रक्षा स्वअपराधियोंको दड इस कथनसे राजे महाराने भी जैन धर्मको सुखपूर्वक पालन कर सकते हैं । फिर पाच ही अतिचार रूप दोषोंको भी दूर करे कि क्रोधके वशीभूत होकर जीवोंको बांधना १ । वध करना अपितु जो वालकोंको ताड़नादि किया जाता है वह केवल शिक्षाके वास्ते होता है किन्तु उस आत्माको पीड़ित करनेके लिए नही जैसे अध्यापक छात्रोंको शिक्षाके लिये ही ताडता है किन्तु उनके प्राणनाश करनेके लिए नहीं इस लिये क्रोधसे वध करना भी प्रथम अनुव्रतमें अतिचार रूप दोप है २ । तृतीय अतिचार छविका छेदन करना ही है जैसेकि नेत्रोंके विषयके वास्ते पशुओके अंगोपांग काट देने ३। और चतुर्य अतिचार अतिभारारोपण है, पशुओकी शक्तिको न देखते हुए अति भारका लादना यह मी प्रथम अनुव्रतमे दोष है ४ । पचम दोष अन्नपानीका निरोध रूप है, क्योंकि वे अनाथ आत्मा जो पूर्व पापोंके फलस पशु योनिको प्राप्त हुए है उनकी भली प्रकारसे रक्षा न करना यह भी प्रथम अनुव्रतमें अतिचार रूप दोष है ५॥ इस लिये अनुव्रत द्विकरण तीन योगसे आयु पर्यन्न ग्रहण करे, करूं नहीं मनकरके वचन करके काय करके कराऊ नहीं मन करके वचन करके काय करके इस प्रकार गृहस्थी प्रथम अनुव्रत धारण करके फिर द्वितीय अनुव्रत धारण कर जोकि निम्न लिखित है वोजें अणुव्रत शुलाउ मोसावायाउ वेरमणं कन्नालिए गोवालिए भोमालिए थापणमोसा मोटको कूड़ी साख इत्यादि मोटकं झूठ बोलवाना पञ्च.
SR No.010524
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherLala Munshiram Jiledar
Publication Year1915
Total Pages101
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_aavashyak
File Size4 MB
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