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________________ दोपोंकी क्षमा करनेकी प्रार्थना अवश्य ही करे क्योंकि क्षमा मांगनेसे अविनय भाव दूर हो जाता है। त्रयस्त्रिंशत् प्रकारकी आशातनायें करके वा मन वचन काय करके तथा चारों कषायों करके कभी भी गुरुकी आशातना न करे । यदि किसी प्रकारसे भी गुरुकी आशातना हो गई तो उसका पश्चात्ताप करे, फिर स्वआत्माद्वारा उस कर्मकी निंदा करता हुआ पुनः कभी भी आशातना न करे क्योंकि अविनय भावसे ज्ञानादि गुणोकी सफलता नही होती है। इति श्री वंदनारूप तृतीयावश्यक समाप्तम् ॥ फिर तिक्खुत्तोके पाठसे वदना करके चतुर्थ आवश्यक करनेको गुरु महाराजसे आज्ञा लेकर पूर्वोक्त ९९ अतिचार जो कायोत्सर्गमे पठन किए थे उनको पठन करे किन्तु सर्व पाठोंके अतमें "तस्स मिच्छामि दुकड" ऐसे कहना चाहिये क्योंकि ध्यानमें यह कहा जाता है कि "जो मे देवसि अइयार कओ तस्स चिंतवणा" इत्यादि । फिर तिक्खुत्तोके पाठसे वदना करके बैठकर दक्षिण जानु ऊर्च करके वामा जानु भूमिका पर रखकर नमस्कार मत्र पढे । फिर "करेमि भत्ते का सूत्र पठन करे । फिर निम्न प्रकारसे पाठ पढे-इस क्रियाको वा पाठको श्रावकसूत्र भी कहते है । ___ चत्तारि मंगलं अरिहंता मंगलं सिद्धा मंगलं साहु मंगलं केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगल चत्तारि लोगुत्तमा अरिहंता लोगुत्तमा सिद्धा लोगुत्तमा साहू लोगुत्तमा केवलि पण्णतो धम्मों लोगुत्तमा चत्तारि सरणं पधज्जामि अरिहंता सरणं पव्वज्जामि सिद्धा सरणं प. व्वज्जामि साहू सरणं पध्वज्जामि केवलि पण्णनोध. म्मो सरणं पव्वज्जामि ॥ १ अरिहताजीको सरणो सिद्धाजीको सरणो साधुजीको सरणो केलि परूप्या - -
SR No.010524
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherLala Munshiram Jiledar
Publication Year1915
Total Pages101
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_aavashyak
File Size4 MB
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