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________________ संख्या. अंगसूत्राणि. (५) विवाहप्रज्ञप्ति. (६) ज्ञाताधर्मकथांग. (७) उपासकदशाङ्ग. (८) अतगड. (९) अनुत्तरोववाइ. २९ (६) चन्द्र प्रज्ञप्ति. (७) सूर्य्य प्रज्ञप्ति. (८) निरावलिका. (९) पुल्फिया. (१०) कप्पिया. (११) पुप्फ चुल्लिका. (१२) वहिदशा अर्थात् - जो पूर्वोक्त शास्त्रोंका अभ्यास स्वय करते है और औरोंको यथा अवकाश वा यथा अवसर पठनाभ्यास करवाते है, पुन' विद्याकी उन्नति करनेमें तत्पर रहते है और जिसके द्वारा धर्म तथा विद्याकी वृद्धि हो वही कार्य्य करके परिफुल्लित होते हैं, ऐसे परम पण्डित महान् विद्वान् दीर्घदश परमोपकारी श्री उपाध्यायजी महाराजोंको नमस्कार हो, जो कि श्रत विद्याकी नावसे अनेक भव्य जीवोंको ससाररत्नाकरसे उत्तीर्ण करते हैं | अन्यच्च-नमस्कार हो सर्व साधुओं को जो लोकमें सुगुणों करके परिपूर्ण है सदा ही परोपकारी है और ज्ञानके द्वारा स्व आत्मा वा अन्यात्माओं के कार्य सदैव काल सिद्ध करते हैं, अपितु सप्तविंशति गुणयुक्त है तिन सुनियोंको पुनः पुनः नमस्कार हो | फिर सामायिक करनेका निम्न लिखित सूत्र पढे । (१०) प्रश्न व्याकरण (११) विपाक. संख्या. उपांगसूत्राणि. (५) जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति. ॥ अथ मूल सूत्रम् ॥ करेमि भंते सामाइयं सावज्जं जोगं पञ्चक्खामि जावनियमं * पज्जुवासामि दुविहं तिविहेणं न करेमि * सामायिक कर्ताको चाहिये इस पाठ अतर्गत ही यावन्मात्र मुहूर्त करने हों तावन्मात्र ही कह लेने, जैसे कि- जावनियम मुहूर्त १ वा २ - पज्जुवासामि इत्यादि ॥
SR No.010524
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherLala Munshiram Jiledar
Publication Year1915
Total Pages101
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_aavashyak
File Size4 MB
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